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गोरक्षा और संवर्द्धन (Defense of cows and Caring)



गोरक्षा और संवर्द्धन (Defense of cows and Caring) 

हमारे धर्मपरायण देश के ऊपर गोवध, वास्तव में, एक कलंक है। जब तक विदेशी शासन रहा, तब तक तो मजबूरी थी। किन्तु, अब तो हमारी अपनी सरकार है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के साढ़े छः दशक बाद भी, वह इस कलंक को मिटा नहीं पाई। मांस भक्षण को बढ़ावा देने हेतु, सरकार मछली, मुर्गी और सुअर पालन के लिए लोगों को ऋण देती है, किन्तु गोपालन के लिए कोई प्रोत्साहन नहीं देती। इससे स्पष्ट है कि हमारी सरकार न तो गोरक्षा के लिए और न ही गोवंश संवर्द्धन के प्रति गम्भीर है।

ऐसी बात नहीं है कि गोहत्या बन्द किये जाने की बात पहली बार हम ही उठा रहे हैं। इसकी मांग स्वतन्त्रता प्राप्ति के बहुत पहले से समय-समय पर उठती रही है, भूख हड़तालें हुई हैं और प्रचण्ड आन्दोलन हुये हैं। इस सम्बन्ध में कानून तो बना, किन्तु उसे प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया। अतः गोहत्या अब भी जारी है।

अब तो एक ही मार्ग बचा है कि जनसामान्य को मांसाहार के दोष बताकर उसे न लेने के लिए जाग्रत् किया जाय और कानून का उल्लंघन करने वालों को कानून के हवाले किया जाय। इस कार्य को धर्मसम्राट् युग चेतना पुरुष परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के द्वारा गठित भगवती मानव कल्याण संगठन बड़े ही योजनाबद्ध ढंग से कर रहा है। महाराजश्री के अनुसार, जब कोई मांस खरीदने जाएगा ही नहीं, तो उसकी दुकानें स्वतः बन्द हो जाएंगी।

गोसेवा

एक समय था, जब गोसेवा को लोग अपना धर्म समझते थे। किन्तु, अब इस कलिकाल ने मनुष्य की बुद्धि को भ्रष्ट करके रख दिया है। प्रायः हर आदमी भोगवादी जीवन जी रहा है। अब लोगों ने गोपालन छोड़कर डेयरी से दूध लेना प्रारम्भ कर दिया है। वहां पर गाय को गाय नहीं, दूध उत्पादन की एक मशीनमात्र समझा जाता है। उसके बच्चे को दूध उतारने का यन्त्र समझकर उसके हिस्से का दूध भी बेच दिया जाता है। जब वह मर जाता है, तो गाय को इन्जैक्शन लगाकर दूध उतारा जाता है। इस प्रकार, वहां पर गाय बुरी तरह से दुःखी रहती है और दुःखी गाय का दूध पीने योग्य नहीं होता। कहा जाता है कि गाय जितनी प्रसन्न होती है, उसके दूध में उतने ही विटामिन उत्पन्न होते हैं और जितनी वह दुःखी रहती है, उसका दूध उतना ही कमजोर होता है।

प्रायः देखने में आता है कि गाय जब तक दूध देती है, लोग उसे चारा-पानी देते रहते हैं। किन्तु, जैसे ही वह बूढ़ी होने के कारण दूध देना बन्द कर देती है, उसे या तो कसाई को बेच दिया जाता है, या फिर घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। यह कितनी लज्जा और दुःख की बात है!

समाज में आज गोशालाओं की महती आवश्यकता है। वहां पर जो कतिपय गोशालाएं चल रही हैं, उनका तो और भी बुरा हाल है। वहां की दुरावस्था देखकर, वास्तव में, रोना आता है। उनमें गायों की बिल्कुल भी सेवा नहीं होती। सेवा के स्थान पर वे नितान्त अस्वास्थ्यकर वातावरण में असहाय कष्टपूर्ण जीवन जीती हैं। ऐसा लगता है, जैसे उन्हें कोई दण्ड दिया जा रहा हो। गोशाला के व्यवस्थापकों की आचारभ्रष्टता के कारण, उनके निमित्त दान में मिले धन का दुरुपयोग होता है। गायों को जीनेभर के लिए सूखा भूसा परोस दिया जाता है। वे हारी-थकी निरीह गायें इतनी दुबली रहती हैं कि आप उनकी एक-एक पसली गिन सकते हैं। उनकी रोनी शक्ल देखने से लगता है, जैसे उनकी आंख से आंसू टपकने वाले हों। किन्तु, किसी को उन पर दया नहीं आती। इन गोशालाओं के व्यवस्थापकों के लिए निम्नलिखित श्लोक चिन्तनीय एवं मननीय हैः

यत्र गावः प्रसन्नाः स्युः, प्रसन्नास्तत्र सम्पदः।
यत्र गावो विषण्णाः, स्युर्विषण्णास्तत्र सम्पदः।।
अर्थात् जहां पर गायें प्रसन्न रहती हैं, वहां समस्त सम्पदाएं प्रसन्न होकर प्राप्त होती हैं और जहां पर गायें दुःखी रहती हैं, वहां से सारी सम्पदाएं दुःखी होकर लुप्त हो जाती हैं।

वास्तव में, यह व्यापक विश्वहित में होगा कि गोसेवा को लोग धर्म समझकर यथासम्भव पुनः गाय पालना प्रारम्भ करें और उसकी जी-जान से सेवा करें।

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