• जीवन की आधारशिला: ब्रह्मचर्य (Base of life-Brahmcharya)
जीवन की आधारशिला: ब्रह्मचर्य |
जीवन की आधारशिला: ब्रह्मचर्य (Base of life-Brahmcharya)
हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने बहुत सोच-समझकर भारतीय समाज को एक अनूठी वर्णाश्रम व्यवस्था प्रदान की थी। इसके अनुसार, पूरा समाज कर्म के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र नामक चार वर्णों में विभाजित किया गया था। इसके अतिरिक्त, मनुष्य की सामान्य आयु सौ वर्ष मानकर जीवन को 25-25 वर्ष की अवधि के ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास नामक चार आश्रमों में बिताने का विधान किया गया था। इस प्रकार, उस समय जीवन की यात्रा ब्रह्मचर्य आश्रम से प्रारम्भ होती थी।कालान्तर में वर्णव्यवस्था अब की जाति व्यवस्था में बदल गई, जो कर्म की बजाय जन्म के आधार पर चल रही है। इसके अनुसार, ब्राह्मण कुल में जन्मा व्यक्ति ब्राह्मण ही होता है, भले ही वह शूद्र के लिए निर्धारित सेवाकार्य कर रहा हो। शूद्र का बेटा, भले ही अध्यापन कार्य कर रहा हो या सैन्य अधिकारी हो, शूद्र ही रहता है।
इस प्रकार, प्राचीन वर्णव्यवस्था अब पूर्णतया छिन्न-भिन्न हो चुकी है। यही हाल आश्रमव्यवस्था का भी है। वह भी उच्छिन्नप्राय हो चुकी है, क्योंकि आजकल अधिकतर युवा पच्चीस वर्ष की आयु होने से पहले ही गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर जाते हैं और यदि नहीं भी करते, तब भी उनका ब्रह्मचर्य खण्डित हो जाता है। वानप्रस्थ और संन्यास के विधान को तो कोई बिरला ही व्यक्ति अपनाता है।
ब्रह्मचर्य क्या है?
यह तो हुई ब्रह्मचर्य आश्रम की बात। किन्तु, जिस ब्रह्मचर्य के विषय में हम यहां पर चर्चा कर रहे हैं, वह मुनि पतंजलि के द्वारा प्रवर्तित अष्टांग योग के आठ अंगों में से प्रथम अंग यम का एक भेद है। इसके अन्तर्गत मन-इन्द्रिय आदि को वश में रखकर तथा मन-वचन-कर्म के द्वारा स्वयं को किसी भी प्रकार के मैथुन से बचाकर वीर्यरक्षा की जाती है। आयुर्वेद के अनुसार, वीर्य शरीर की सात बहुमूल्य धातुओं में से एक है। इसके कारण शरीर में बल और कान्ति बनी रहती है। प्राचीन की आश्रमव्यवस्था के अनुसार, जीवन की प्रथम पच्चीस वर्ष की अवधि में व्यक्ति के द्वारा विद्याध्ययन के साथ-साथ ब्रह्मचर्यव्रत का पालन भी किया जाता था। इसीलिए, इसे ब्रह्मचर्य आश्रम कहा गया था।ब्रह्मचर्य का अर्थ है व्यक्ति के मनोदैहिक अवयव संस्थान की शुचिता शक्ति। इसका अभिप्राय यह है कि मात्र प्राकृतिक अथवा अप्राकृतिक मैथुन न करना ही ब्रह्मचर्य नहीं है। इसके साथ-साथ मन की पवित्रता का होना भी नितान्त आवश्यक है, अन्यथा क्रियात्मक मैथुन न होने के बावजूद, यदि मन विकारयुक्त रहेगा, तो उससे ब्रह्मचर्य खण्डित होता रह सकता है। इस प्रकार, व्यक्ति की ओजस्विता क्षीण होती चली जाएगी।
ब्रह्मचर्य का महत्त्व
विश्वविख्यात, यूनानी दार्शनिक सुकरात (ैवबतंजमे) से एक बार उनके एक शिष्य ने पूछा, ‘‘पूज्य गुरुदेव, एक गृहस्थ व्यक्ति अपनी धर्मपत्नी से कितनी बार संसर्ग कर सकता है?’’ उत्तर मिला, ‘‘अपने जीवनकाल में केवल एक बार।’’ शिष्य ने कहा ‘‘एक सांसारिक व्यक्ति के लिए तो यह नितान्त असम्भव है। कामवासना बहुत भयानक, उत्पाती एवं मन को विचलित करने वाली है। आप तो एक दार्शनिक एवं योगी हैं। आप अपने मन पर नियन्त्रण रख सकते हैं, किन्तु एक सांसारिक व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं है। अतः उसके लिए कोई सरल मार्ग बताएं।’’ सुकरात ने कहा, ‘‘ठीक है, गृहस्थ व्यक्ति वर्ष में एक बार सम्भोग कर सकता है।’’ शिष्य बोला ‘‘यह भी उसके लिए कठिन कार्य होगा। कृपया कोई सरलतम मार्ग बताएं।’’ सुकरात ने कहा, ‘‘महीने में एक बार। अब तो तुम सन्तुष्ट हो न?’’ शिष्य ने कहा, ‘‘नहीं गुरुदेव, यह भी असम्भव है। गृहस्थ लोगों का मन बहुत चंचल होता है। यह भी मुश्किल है।’’ इस पर सुकरात बोले, ‘‘तो मेरे प्यारे बच्चे, अब तुम एक काम करो--सीधे कब्रिस्तान चले जाओ और वहां पर अपनी कब्र पहले से ही खोद लो तथा एक ताबूत एवं कफन का कपड़ा भी खरीदकर रख लो। उसके बाद तुम जितनी बार चाहो, अपने आपको खराब कर सकते हो। और, यह तुम्हें मेरा अन्तिम परामर्श है।’’गुरु के इस अन्तिम परामर्श ने उस शिष्य के हृदय को झखझोरकर रख दिया। फलस्वरूप, उसने इस विषय में गम्भीरता से सोचा। उसने ब्रह्मचर्य के महत्त्व और उसकी महिमा को समझा तथा आजीवन अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने का संकल्प लिया। उसने आद्योपान्त साधनात्मक जीवन जिया तथा वह महिलाओं की संगति से सदैव दूर रहा। आगे चलकर वह एक ऊर्ध्वरेता (बालब्रह्मचारी) योगी हुआ और आत्मदर्शन प्राप्त करके सुकरात का प्रियतम शिष्य बना।
ब्रह्मचर्य, वास्तव में, इस जीवनरूपी विशाल भवन की ठोस नींव है। यह एक ऐसा विद्युतगृह है, जिसके निर्माण के बाद व्यक्ति अति विशाल ऊर्जा प्राप्त कर सकता है, जो जीवन के किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जरूरी है। ब्रह्मचर्य के बिना आध्यात्मिक उत्थान नितान्त असम्भव है। यदि नीचे के नल खोल दिए जायें, तो छत पर पानी नहीं चढ़ता। इसी प्रकार, यदि ब्रह्मचर्य का पालन न किया जाय, तो व्यक्ति कभी भी ऊपर नहीं उठ सकता। जीवन के संघर्षों का सफलतापूर्वक सामना करने के लिए ब्रह्मचर्य का होना अत्यन्त आवश्यक है।
ब्रह्मचर्य पालन के लाभ
ब्रह्मचर्य के पालन से व्यक्ति में आत्मसंयम तथा शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता आती है। उसकी विचारतरंगें कभी भी नष्ट नहीं होने पातीं, क्योंकि उसके भाव एवं विचार सदैव एक दिशा की ओर निर्दिष्ट होते हैं और उनमें विस्मयकारी ऊर्जा होती है। यह ऊर्जा अति उच्च योग्यता, कुशाग्र बुद्धि, विस्तृत एवं उदार हृदय, स्वस्थ एवं हृष्ट-पुष्ट शारीरिक गठन तथा अटल नैतिक चरित्र के विकास में सहायक होती है। इसके आधार पर कोई व्यक्ति एक कुशल खिलाड़ी, कल्पनाशील कलाकार, कर्मठ व्यापारी, समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता, नैतिक रूप से उन्नत राजनीतिज्ञ तथा एक पुण्यप्रिय सन्त बन सकता है।ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने से मन की एकाग्रता का उदय होता है, जो ज्ञान की प्राप्ति अथवा किसी क्षेत्र में उसके अनुप्रयोग के लिए जरूरी है। ब्रह्मचर्य व्यक्ति के बिखरे हुए मन का शोधन करता है और उसे एकाग्रता की चमत्कारी शक्ति को काम में लाने में सहायता करता है।
ब्रह्मचर्य व्यक्ति के निरर्थक आवेश को कम करता है तथा उसे अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए शान्त, कर्मनिष्ठ एवं दृढ़ बनाता है। इससे उसके उत्साही हृदय में विचारों एवं इच्छाओं के बीच द्वन्द्व समाप्त होकर धैर्य एवं दृढ़ता आती है, जो उसके जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, ब्रह्मचर्य व्यक्ति को प्रतिकूलताएं सहन करने की शक्ति प्रदान करता है।
आज लोगों की एक छोटी सी इच्छा पूरी न हो, तो वे आत्महत्या करने के लिए तैयार हो जाते हैं। ब्रह्मचर्य का व्रत जीवन के उतार-चढ़ावों में सन्तुलित रहने की शक्ति प्रदान करता है। यह मनुष्य को वह शक्ति देता है, जिसके बल पर वह असम्भव से असम्भव कार्य कर सकता है। इस धरती पर ऐसी कोई शक्ति नहीं, जो ऐसे व्यक्ति का कुछ भी बुरा कर सके।
ब्रह्मचर्य से व्यक्ति में आत्मविश्वास, आत्मसम्मान एवं आत्मनिर्भरता आती है। यह व्यक्ति की तेजस्विता को बढ़ाता है। इससे उसमें उदात्त प्रेरणा, अदम्य साहस, ऊर्जा और जबरदस्त संकल्पशक्ति उत्पन्न होती है। ब्रह्मचर्य के द्वारा व्यक्ति दैवीय चेतना से परिपूर्ण होता है। वह आत्महित की नहीं, परहित की सोचता है, अनुभव करता है और समाजकल्याण एवं लोककल्याण के लिए कार्य करता है।
आज समाज को आवश्यकता है, ईमानदार एवं कर्तव्यपरायण जनसेवकों की, उदार, सत्यनिष्ठ एवं हमदर्द राजनेताओं की, विश्वासपात्र पतिव्रता पत्नियों एवं पत्नीव्रती पतियों की, आज्ञाकारी पुत्र एवं पुत्रियों की, निष्कपट माता-पिताओं की, अटल स्वभाव वाले व्यवसायियों की और इन सबके अतिरिक्त पूर्ण पवित्र सन्तों की। इसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन प्रारम्भ किया जाना चाहिए।
यही कारण है कि धर्मसम्राट् युग चेतना पुरुष सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज लोगों को विवाहपूर्व पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने, विवाहोपरान्त एक पति/एक पत्नी का व्रत लेने तथा सन्तानोत्पत्ति के उपरान्त पुनः ब्रह्मचर्य व्रत धारण करने का परामर्श देते हैं। स्वयं भी आपश्री मन-वचन-कर्म से सपत्नीक ऐसा ही करते हैं।
वर्तमान स्थिति
कुछ अज्ञानी लोगों का कहना है कि ब्रह्मचर्य का पालन बिल्कुल असम्भव है, क्योंकि यह अप्राकृतिक है। कोई व्यक्ति इस व्रत को धारण कर ही नहीं सकता। ऐसे लोगों को ज्ञात होना चाहिए कि त्रेतायुग में हनुमान, द्वापर में भीष्मपितामह और इस कलियुग में भी स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा आद्यशंकराचार्य आदि अनेक विभूतियां इसी देश में उत्पन्न हो चुकी हैं, जो आजीवन अखण्ड ब्रह्मचारी रहे।आजकल विशेष रूप से हमारे युवाओं में ब्रह्मचर्य का ह्ास होता दिखाई दे रहा है। उनके चेहरे पर जहां ओज-तेज होना चाहिए, वे मुरझाए हुए हैं। लगता है जैसे उन्होंने बाल्यवस्था से सीधे प्रौढ़ावस्था में प्रवेश किया हो।
गन्दे साहित्य की प्रचुरता, कामुक सिनेमाचित्रों एवं टी.वी. सीरियलों तथा फिल्म्स ने तो आग में घी का काम किया है। ये अवयस्क बच्चे-बच्चियों के मन को विकृत कर रहे हैं।
युवाओं ने आज अपनी कामवासना की तृप्ति के लिए अनेक प्रकार के अप्राकृतिक साधन ईजाद कर लिए हैं। उनके अन्दर समलैंगिकता तेजी से बढ़ रही है। शादी के झंझट में न पड़कर युवतियां युवतियों से और युवक युवकों के द्वारा अपनी कामवासना तृप्त करने लगे हैं। पाश्चात्य देशों में इस प्रवृत्ति को कानूनी मान्यता प्राप्त है, किन्तु देर-सबेर यह बयार हमारे देश में भी चलने वाली है। यह घोर चिन्ता का विषय है। इस पक्ष में मनुष्य पशुओं से भी बदतर हो गया है। वे कदापि ऐसा नहीं करते।
एक ओर जहां हम लोग जीवन में ब्रह्मचर्य व्रत धारण किये जाने की अनिवार्यता पर बल दे रहे हैं, वहीं दूसरी ओर एक धर्मगुरु ने सम्भोग से समाधि प्राप्त होने का दावा करके समाज को भटकाकर रख दिया है। इस प्रकार, उसने महर्षि पतंजलि के अष्टांग योग को सिरे से खारिज कर दिया है। ऐसे सिरफिरे लोगों से सदैव सतर्क रहने की जरूरत है।
वास्तव में हीनवीर्य पुरुष शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक, हर दृष्टि से कमजोर होता है। इसलिए, जिस देश में ऐसे लोगों की जितनी अधिकता होगी, उतना ही वह दुर्बल एवं परमुखापेक्षी होगा। यदि हमें अपने देश को ऐसी भयावह स्थिति से बचाना है, तो हर कीमत पर हमें अपने युवाओं को ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने के लिए प्रेरित करना होगा।
ब्रह्मचर्य व्रत का पालन
प्रायः देखा गया है कि कुछ लोग क्षणिक जोश में आकर बिना सोचे-समझे आजीवन अखण्ड ब्रह्मचारी रहने का संकल्प ले लेते हैं। बाद में कामवासना पर काबू न रहने के कारण उनका पतन हो जाता है। अतः संकल्प लेने मात्र से कभी भी ब्रह्मचर्य का पालन सम्भव नहीं है, क्योंकि मनुष्य का चंचल मन हमेशा विकल्प खोजने लगता है। अतः यदि ब्रह्मचर्यव्रत धारण करना है, तो मन को नियंत्रण में रखने के लिए साधनात्मक जीवन जीना नितान्त आवश्यक है।बेहतर तो यह है कि विवाह करके बाकायदा गृहस्थ जीवन में प्रवेश करें, संयमित जीवन जियें तथा उपयुक्त समय पर ब्रह्मचर्य व्रत धारण करें। सुखोपभोग का परित्याग करके सामान्य सा जीवन जियें, सादा सात्त्विक भोजन करें, सुयोग्य गुरु के मार्गदर्शन में ध्यान-साधना एवं प्राणसाधना आदि करें तथा प्रतिजाति (Opposite Sex) से यथासम्भव दूर रहें। जब भी मन विकारयुक्त हो, उसे अपने इष्ट के चरणों की ओर मोड़ दें। गन्दे साहित्य, कामुक चर्चाओं, गन्दी संगति तथा कामोत्तेजक सिनेमाचित्रों एवं टी.वी. सीरियलों से बचें। इस प्रकार, नियमित अभ्यास के द्वारा धीरे-धीरे मन काबू में आना शुरू हो जाएगा। इसके साथ-साथ अपने आचार-व्यवहार के द्वारा अपने बच्चों को भी सुसंस्कारवान् एवं चरित्रवान् बनाएं।
आधुनिक मनुष्य ने अपनी एक क्षणिक वासना की तृप्ति के लिए अपने सुरदुर्लभ जीवन की नींव को ही खोखला कर डाला है। एक आनन्दमय लौकिक एवं पारलौकिक जीवन जीने के लिए हमें ब्रह्मचर्य के महत्त्व को गम्भीरतापूर्वक समझना चाहिए। हम किशोर, युवा या प्रौढ़ किसी भी अवस्था में हों, आज से और अभी से ही मन-वचन-कर्म के द्वारा ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लेना चाहिए। साथ ही अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों को भी इसके लिए प्रेरित करना चाहिए।
ब्रह्मचर्य अनुपालन हेतु कुछ सुझाव
1. स्वाद पर पूर्ण नियंत्रण प्रथम अनिवार्यता है। अतः सदैव नितान्त सादा, हल्का, सुपाच्य और सीमित भोजन करें। अधिक अच्छा होगा कि ताजे फल, ताजी सब्जियां, अंकुरित अनाज, मेवे और गिरियों आदि का सेवन करें।2. मिर्च-मसाले, आलू-लहसुन-प्याज, गरिष्ठ भोजन एवं चाय-कॉफी का अधिक उपयोग न करें व अण्डा-मांस-मछली और मदिरा को बिल्कुल त्याग दें, क्योंकि ये मैथुनिक आवेग उत्पन्न करते हैं।
3. प्रतिजाति ( व्चचवेपजम ैमग) का सान्निध्य न करें। अश्लील वातावरण, कामोत्तेजक चलचित्रों एवं टी.वी. सीरियलों से बचें तथा अश्लील सहित्य न पढ़ें।
4. स्वच्छता, पवित्रता एवं सात्त्विकता का साधनात्मक जीवन जियें और नियमित ध्यान एवं प्राणसाधना करें।
5. अधिक से अधिक सत्संग करें, आध्यात्मिक साहित्य पढ़ें और आध्यात्मिक संगीत सुनें।
6. हर पल अपने आसपास अपने गुरु एवं इष्ट की उपस्थिति अनुभव करें।
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