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• मूर्तिपूजा की निन्दा क्यों?(why criticise iconolatry)

मूर्तिपूजा की निन्दा क्यों?
why decry of worshiping of god's statues

मूर्तिपूजा की निन्दा क्यों? (why criticise iconolatry)

शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि मूर्तिपूजा का वेदों में कहीं पर भी उल्लेख नहीं है। उनमें न तो उसका खण्डन ही किया गया है और न मण्डन। हाँ, यजुर्वेद के बत्तीसवें अध्याय में यह जरूर कहा गया है कि परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है। वह किसी के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से देखा नहीं जाता। उसका आवाहन करने के लिए उसका नाम ही पर्याप्त है। वह सब अस्तित्वों और सब दिशाओं में व्याप्त है।

चूंकि परमात्मा निराकार है, इसलिए उसे निरूपित करने के लिए इस शब्द के अक्षर ही पर्याप्त हैं। परमात्मा कैसा है? इस प्रश्न का उत्तर है, वह शब्द परमात्मा जैसा ही है। इस प्रकार, वेदों के अनुसार परमात्मा की कोई प्रतिमा नहीं है और न ही वह किसी प्रतीक विशेष में रहता है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

वैदिक काल में न तो मन्दिर थे और न ही देवी-देवताओं की प्रतिमाएं थीं। इसीलिए वैदिक आर्य लोग मूर्तिपूजा नहीं करते थे। वे यज्ञाग्नि में हवनसामग्री की आहुतियां डालकर विभिन्न देवताओं का आवाहन करते थे। किन्तु, उपनिषदों के द्रष्टाओं ने हवन को खारिज करके अपना ध्यान ‘ऊँ’ पर केन्द्रित किया। कुछ लोग कहते हैं कि मौर्यकाल में पहली बार मूर्तियों और मन्दिरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ, जबकि यह असत्य है। मूर्तिपूजा का सभी कालों में उल्लेख है।

जब बौद्धधर्म और जैनधर्म भारतवर्ष में फले-फूले, तो गौतम बुद्ध और भगवान् महावीर की प्रतिमाएं लोकप्रिय हुईं। उस समय कुछ लोग कहते थे कि इनसे हिन्दूधर्म में अन्धविश्वास फैला है। फिर भी, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि सारे मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारे और गिरजाघर तथा दूसरे पूजास्थल प्रतिमाएं या मूर्तियां ही तो हैं।

इस्लामधर्म में सूफी सन्तों की मजार (कब्र) और ईसाईधर्म में क्राइस्ट की क्रूसिफाइड फीगर श्रद्धा के योग्य मानी गई हैं। इसी प्रकार, हिन्दूधर्म में परमसत्ता के विभिन्न रूपों के मानवीकरण (Personofication) ने उनकी मूर्ति बनाने में मूर्तिकारों की सहायता की, जो भक्तों के द्वारा पूजे जाने के लिए मन्दिरों में रखी गईं। और, अब हम देखते हैं कि हिन्दू मन्दिरों में विभिन्न देवी-देवताओं की पर्याप्त प्रतिमाएं हैं।

वैज्ञानिक आधार

किसी बच्चे को जब हम अक्षरज्ञान प्रारम्भ कराते हैं, तो उसे ‘अ’ से ‘अनार’ बताते हैं और साथ में अनार का चित्र दिखाते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य का मन किसी अमूर्त वस्तु पर एकाग्र नहीं होता। इसी प्रकार, परमसत्ता की उपासना में ध्यान टिकाने के लिए उसके किसी रूप की प्रतिमा की आवश्यकता होती है। उल्लेखनीय है कि देवी-देवताओं की ऐसी मूर्तियां कोरी कल्पना नहीं हैं, बल्कि हमारे द्रष्टा ऋषियों ने उनके ऐसे रूपों के साक्षात् दर्शन किये हैं।

वास्तव में, परमसत्ता का अलौकिक रूप इन्द्रियातीत है। अतः उसे ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता। उसका भौतिक रूप यह ब्रह्माण्ड है। इसकी भी थाह मन के द्वारा नहीं ली जा सकती। इसलिए कोई भक्त किसी अक्षर पर या परमसत्ता की किसी मूर्ति पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। बिना मूर्ति के यह सम्भव नहीं है।
जिस प्रकार कोई व्यक्ति अपने माता-पिता के सामने हाथ जोड़ता है या उनके चरणस्पर्श करता है, तो उसकी श्रद्धा उन तक पहुंचती है; ठीक इसी प्रकार, जब किसी मूर्ति को प्रणाम किया जाता है या श्रद्धा प्रस्तुत की जाती है, तो वास्तव में वह भगवान् तक पहुंचती है।

मूर्तिपूजा का विरोध

इस्लामधर्म तो शुरू से ही मूर्तिपूजा (बुतपरस्ती) का विरोधी रहा है। बुतपरस्त (मूर्तिपूजक) को वहां पर ‘काफिर’ कहा जाता है और उसकी भर्त्सना की जाती है। किन्तु, हिन्दूधर्म में ही महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा को व्यर्थ बताकर आर्यसमाज की स्थापना की। एक बार उन्होंने शिवलिंग पर एक चूहे को उछलते-कूदते हुए तथा उस पर चढ़ाए गए फल आदि को खाते हुए देखा। इससे उनके मन में आया कि यदि इसमें भगवान् शंकर होते, तो यह चूहा कदापि ऐसा नहीं कर पाता। यद्यपि आर्यसमाज भी वेदों को मानता है और वह भी वैदिक धर्म ही है, किन्तु वहां पर निराकार की उपासना की जाती है। इस प्रकार, हिन्दूधर्म का विभाजन आर्यसमाज और सनातनधर्म में हो गया।

इसके अतिरिक्त, जैन, बौद्ध और देवसमाज जैसे और भी ऐसे धर्म-सम्प्रदाय हैं, जो मूर्तिपूजा के विरोधी हैं। किन्तु, सनातन धर्म भगवान् के प्रति अपनी श्रद्धा, प्रेम एवं भक्ति को प्रकट करने के रूप में मूर्तिपूजा को खुले दिल से स्वीकार करता है।

जब कोई व्यक्ति किसी मूर्ति के सामने खड़ा होकर श्रद्धापूर्वक पूर्ण समर्पण भाव से उसे नमन करता है, तो उसके हृदय में एक अबोध बालक जैसा भोलापन एवं शुद्धता होती है, जो भौतिकवाद में फंसे एक प्रौढ़ व्यक्ति के लिए प्राप्त करना कठिन होता है। किन्तु, सनातन धर्म के भक्तिमार्ग में यह अत्यन्त सहज एवं सरल है।

स्वामी विवेकानन्द का स्पष्टीकरण

अपने भ्रमण के दौरान, एक बार स्वामी विवेकानन्द राजस्थान के एक राजा के यहां ठहरे। वह राजा स्वामी जी का बड़ा श्रद्धालु था, किन्तु मूर्तिपूजा में उसका विश्वास नहीं था। अतः उसने स्वामी जी से उस पर प्रकाश डालने का अनुरोध किया। स्वामी जी ने वहां पर उपस्थित सेवकों से दीवार पर टंगी राजा के किसी पूर्वज की फोटो उतारकर फर्श पर लेटाने को कहा। तदनुसार उस फोटो को जमीन पर लेटा दिया गया। अब स्वामी जी ने उन सेवकों से कहा कि उस पर थूको और जूते मारो। यह सुनकर राजा सहित वहां पर उपस्थित सभी लोग हतप्रभ रह गए और उनमें से किसी की भी हिम्मत ऐसा करने की नहीं हुई।

तब स्वामी जी ने राजा को समझाया, ‘‘देखिये, हम सभी जानते हैं कि यह फोटो मात्र एक कागज है। किन्तु, जितनी श्रद्धा और सम्मान हम इन पूर्वज का करते हैं, उतना ही उनके इस फोटो का भी करते हैं। यदि कोई इसकी बेइज्जती करता है, तो हमारी भावनाओं को चोट लगती है। ठीक इसी प्रकार मूर्तिपूजा में भक्त का दृष्टिकोण भी ऐसा ही होता है। वह मूर्ति को भी उतना ही पूजनीय एवं सम्माननीय मानता है, जितना स्वयं भगवान् को।’’
हमारे पुराण इस प्रकार के उदाहरणों से भरे पड़े हैं, जहां पर अनेक देवों, असुरों और मनुष्यों ने भगवान् की मूर्ति की पूजा करके उनसे वरदान प्राप्त किये हैं। रावण भगवान् शंकर का भक्त था और वह प्रतिदिन शिवलिंग की पूजा करता था। इसके फलस्वरूप भगवान् शिव से उसने अनेक वरदान एवं शक्तियां प्राप्त की थीं। वास्तव में, मूर्तिपूजा भगवान् के साथ मूक संवाद का एक सर्वोत्तम साधन है और यह प्रार्थना की तुलना में कहीं अधिक प्रभावी है।

भगवान् की सर्वव्यापकता

मूर्तिपूजा परमसत्ता की सर्वव्यापकता को स्वीकार करने का एक मार्ग है। भगवान् सर्वव्यापक हैं और वह उस मूर्ति में भी विद्यमान हैं तथा वह उनकी ऊर्जा से भरी है। इस प्रकार, विश्व की हर वस्तु समान रूप से पवित्र और पूजनीय है। इसीलिए, मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है--
सीय राम मय सब जग जानी। 
करहुं प्रणाम जोरि जुग पाणी।।
इस सम्बन्ध में इस्लामधर्म भी पीछे नहीं रहा। वह भी हर जगह पर खुदा की मौजूदगी को कुबूल करता है। एक उर्दू शायर ने कुछ इसी प्रकार के उद्गार व्यक्त किये--
साकी शराब पीने दे, मस्जिद में बैठकर;
या वो जगहा बता दे, जहां पर खुदा न हो!
वास्तव में, भगवान् का हर भक्त हर जगह उनकी उपस्थिति अनुभव करता है। और, यही कारण है कि वह प्रायः कोई भी पापकर्म करने से बचा रहता है। उसे मालूम है कि वह हर पल हर जगह परमसत्ता की निगाहों में ठीक उसी प्रकार से रहता है, जैसे सीसीटीवी के कैमरे की निगाहों में।

मूर्तियों की प्रतिक्रिया

कभी-कभी मूर्तियां प्रतिक्रिया भी दर्शाती हैं और भक्त के साथ वार्ता करती हैं। यदि भक्त के हृदय में भक्ति है, तो भगवान् निश्चित रूप से प्रतिक्रिया दर्शाते हैं। मीराबाई, सन्त तुकाराम, स्वामी रामकृष्ण परमहंस और परमहंस योगानन्द आदि के जीवन इस बात के प्रमाण हैं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस तो माता भगवती को अपने हाथों से खीर खिलाते थे। उन्होंने सन्देह से परे सिद्ध किया है कि मनुष्य मूर्तिपूजा के द्वारा भगवान् से साक्षात्कार कर सकता है।

ज्ञातव्य है कि महमूद गजनवी ने जब भारत पर आक्रमण किया और प्रसिद्ध सोमनाथ मन्दिर तोड़ा, तो मन्दिर के पुजारी उसकी रक्षा करने की बजाय, भगवान् से सहायता के लिए लगातार प्रार्थना करते रहे। उनकी प्रार्थना बेकार रही और उससे कुछ भी नहीं हुआ, क्योंकि उनके हृदय में भक्ति नहीं थी।

मन्दिर में जाकर मूर्ति के सामने नमन करने में किसी भक्त को कोई लज्जा नहीं आती। उसके सामने खड़े होकर बात करने में उसे संकोच नहीं होता, जब वह एक सामान्य व्यक्ति की भांति श्रद्धा-भक्ति के साथ उससे बात करता है। चाहे वह गरीब हो या अमीर, वह कुछ मांग रहा है या बिना किसी कामना के प्रार्थना कर रहा है, किन्तु उसका यह भाव शंका से परे है। यदि वह मूर्ति चुप रहती है और कोई उत्तर नहीं देती, तो भी उसकी श्रद्धा और विश्वास डगमगाते नहीं हैं, क्योंकि वह यथार्थवादी है। अपने हृदय की गहराई से वह इस सच्चाई को जानता है कि उसके दुःख किसी भ्रम के कारण नहीं हैं। वह केवल इस तथ्य से सन्तुष्ट रहता है कि उसकी प्रार्थनाएं सुन ली गई हैं और स्वीकार हो गई हैं।

हर कोई मूर्तिपूजक

एक बार दिल्ली में आर्यसमाज के एक अखिल भारतीय सम्मलेन का आयोजन किया गया था। वहां पर सुसज्जित मंच की पृष्ठभूमि में आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती का भव्य चित्र विराजमान था। आर्यसमाज का जो भी नेता आता, वह अपना आसन ग्रहण करने से पहले उसको नमन करता था। यह देखकर व्यवस्था में लगे लोगों में से एक ने अपने अन्य साथियों से पूछा, ‘‘क्यों भाई, एक ओर तो हम मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, किन्तु दूसरी ओर यह सब क्या हो रहा है?’’ इस प्रश्न का वहां पर मौजूद लोगों के पास कोई उत्तर नहीं था।
आप मानें या न मानें, किन्तु यह शत-प्रतिशत सही है कि सारी दुनिया के लोग मूर्तिपूजक हैं, भले ही वे उसकी कितनी ही निन्दा करें। किसी ठोस प्रतिमा को सामने रखकर भले ही वे साधना न करें, किन्तु उनके मानसपटल पर कोई न कोई प्रतिमा अवश्य अंकित रहती है। योगी और वेदान्ती भी ‘ऊँ’ अक्षर की आकृति का ध्यान करते हैं। वस्तुतः, किसी वस्तु का मानसिक चित्र भी मूर्तिपूजा का ही एक रूप है।

इसी प्रकार, ईसाई लोग क्राइस्ट की क्रूसिफाइड फीगर का ध्यान करते हैं। मुसलमान लोग भी नमाज़ अदा करने के बाद जब सजदा (नमन) करते हैं, तो काबा में स्थित एक घनाकार पाषाण (Cubical Stone) का ध्यान करते हैं। और, किसी पीर-पैगम्बर की मजार पर चादर चढ़ाना मूर्तिपूजा नहीं, तो और क्या है? जैन लोग भगवान् महावीर की मूर्ति का तथा बौद्धधर्म के लोग भगवान् बुद्ध की प्रतिमा का ध्यान करते हैं। तब फिर मूर्तिपूजा का विरोध क्यों?

निन्दकों का अज्ञान

मूर्तिपूजा की निन्दा करने वाले लोग, वास्तव में, घोर अज्ञानी हैं। उन्हें इस तथ्य का ज्ञान नहीं है कि प्राणप्रतिष्ठा होजाने के उपरान्त कोई भी प्रतिमा पूर्ण चैतन्य होजाती है। वह उसी प्रकार से व्यवहार करने लगती है, जिस प्रकार से वे देवी या देवता करते हैं, जिनकी वह प्रतिमा है। किन्तु, ऐसा तभी तक सम्भव होता है, जब तक उस देवालय में स्वच्छता, शुद्धता एवं सात्त्विकता बनी रहती है। शुद्धता एवं सात्त्विकता समाप्त होते ही उन देवी-देवता की चेतना वहां से चली जाती है और वह मूर्ति चेतनाशून्य होजाती है।

आजकल प्रायः हर मन्दिर में लोग पान, बीड़ी, सिगरेट, पानमसाला, गुटखा, भांग और शराब आदि नशों का सेवन करके आते हैं। और तो और, उस मन्दिर के पुजारी स्वयं ऐसे नशों में लिप्त हैं। मन्दिरों में शिवलिंग पर प्रायः भांग-धतूरा और भैरव जी पर मदिरा चढ़ाई जाती है। कहीं-कहीं पर देवीमन्दिर में पशुबलि दीजाती है। ऐसे में आप कैसे आशा कर सकते हैं कि आपको उनका वरदान या आशीर्वाद प्राप्त हो जाएगा? ऐसे मन्दिरों की पुनः प्राणप्रतिष्ठा होना जरूरी है। किन्तु, समस्या यह है कि वर्तमान में सम्भवतः बिरले ही किसी के पास प्राणप्रतिष्ठा करने का ज्ञान है और उसकी पात्रता है। वे तो सब मात्र दक्षिणा लेना जानते हैं, बस।

इस सम्बन्ध में यहां पर परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज की जन्मस्थली ग्राम भद्रवास (भदवा) के पं. हरिशंकर प्रसाद दिवेदी जी की अनुभूति ‘प्रतिमा जो सजीव हो उठी’ का उल्लेख करना समीचीन होगा।
परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् बचपन से ही माता भगवती की साधना-आराधना में लीन रहते थे। उस समय आपकी आयु सोलह वर्ष थी, जब वर्षाकाल में आपने अपने गांव में ही तालाब के ऊपर बने एक कमरे में माता भगवती का एक विशिष्ट अनुष्ठान सम्पन्न किया था। यह सोलह दिन तक चली एकान्त की एक साधना थी। उस समय साधनाकक्ष में माता भगवती की जो प्रतिमा स्थापित की गई थी, उसका निर्माण किसी पेशेवर मूर्तिकार ने नहीं, अपितु स्वयं गुरुवरश्री ने अपने करकमलों के द्वारा किया था।

इस अनुष्ठान के समापन पर पूर्णाहुति के समय पं. दिवेदी वहां पर उपस्थित थे। उन्होंने स्वयं अपनी आंखों से देखा कि माता भगवती की वह पूरी प्रतिमा सजीव हो उठी थी। लगता था, जैसे कुछ बोल रही है। पण्डित जी को गुरुवरश्री का तपस्वीरूप ‘माँ’ की उस प्रतिमा में एकाकार होता महसूस हो रहा था। ममतामयी ‘माँ’ की यह दिव्यता देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गए थे। बहुत अनुनय-विनय करने के बावजूद भी वह उस मूर्ति को गुरुवरश्री से प्राप्त नहीं कर पाए थे, क्योंकि उसका जल में विसर्जित किया जाना उस अनुष्ठान का एक अंग था।

अस्तु, मूर्तिपूजा न तो कोई आडम्बर है और न ही अन्धविश्वास है। यदि कोई व्यक्ति ऐसा समझता है, तो वह अज्ञानान्धकार में भटक रहा है। वास्तव में, यह एक युक्तियुक्त, तर्कसंगत एवं विज्ञानसम्मत पूर्ण पूजापद्धति है, जिसके द्वारा अनेक साधकों ने परमसत्ता से एकाकार किया है।

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