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बच्चों का पालन-पोषण (caring of childs)
caring of childs

बच्चों का पालन-पोषण (caring of childs)

मनुष्य सहित सभी जीव-जन्तु, यहां तक कि वनस्पति जगत् भी वंशवृद्धि करते हैं। इसी के आधार पर, आदिकाल से यह सृष्टिक्रम अक्षुण्ण बना चला आ रहा है। वस्तुतः, सन्तानोत्पत्ति विशुद्ध रूप से एक प्राकृतिक प्रक्रिया है। किन्तु, खेद का विषय है कि आधुनिक मनुष्य ने उसे नितान्त अप्राकृतिक बनाकर रख दिया है। उसके लिए सन्तानोत्पत्ति गौण और भोगविलास प्राथमिक हो गया है। यही उसके पतन का मूल कारण है।

सन्तान उत्पन्न होने के बाद, उसका पालन-पोषण भी एक प्राकृतिक प्रक्रिया ही है। शिशु के जन्म लेने के पूर्व ही, माता भगवती उसकी माँ के स्तनों में उसके लिए दूध की व्यवस्था कर देती हैं। उदाहरणार्थ, गाय का बछड़ा जन्म लेने के कुछ ही क्षणों बाद उठ खड़ा होता है और भूखा होने के कारण आहार की खोज में गाय के आगे-पीछे अपनी थूथन रगड़ने लगता है। उधर, गाय के थनों में भी दूध का भारी दबाव होता है, जिससे मुक्ति पाने के लिए वह भी बेचैन रहती है। जैसे ही बछड़े के मुंह में गाय का थन आता है, वह जल्दी-जल्दी उसे चूसने लगता है। इससे एक ओर उसकी भूख शान्त होने लगती है और दूसरी ओर गाय को दूध के दबाव से मुक्ति मिलने लगती है। थोड़ी देर बाद, बछड़ा तृप्त हो जाता है और गाय को भी एक सुखद शान्ति की अनुभूति होती है।

इस पक्ष में भी मनुष्य पशुओं से नीचे खड़ा नजर आता है। कुछ माताएं अपने बच्चों को स्तनपान नहीं करातीं, क्योंकि ऐसा करके वे अपना रूप बिगाड़ना नहीं चाहतीं। नवजात शिशु के प्रति यह कितना बड़ा अन्याय है! जिस शिशु के लिए माँ का दूध अमृततुल्य होता है, उससे वंचित करके बाजार के कृत्रिम दूध की बोतल उसे थमा दी जाती है। ऐसे बच्चे बड़े होकर यदि माँ-बाप को वृद्धाश्रम भेजते हैं, तो क्या गुनाह करते हैं? किसी भी बच्चे को स्तनपान से वंचित करने का परिणाम यह होता है कि अपनी माँ के वात्सल्य से विहीन होकर वह उसके प्रति आकर्षण खो देता है। इसके अतिरिक्त, उसकी रोग के विरुद्ध प्रतिरोधात्मक क्षमता कमजोर होती चली जाती है और वह प्रायः बीमार रहने लगता है।

यहां पर पालन-पोषण का तात्पर्य बच्चे को पाल-पोसकर बड़ा करना मात्र नहीं, बल्कि उसे अच्छी शिक्षा एवं संस्कार देकर देश एवं समाज के लिए एक उपयोगी व्यक्ति का निर्माण करना है।

जन्म से पूर्व

ज्ञातव्य है कि महाभारत काल में अभिमन्यु ने अपने माता-पिता के वार्तालाप के माध्यम से चक्रव्यूह का भेदन गर्भावस्था में ही सीख लिया था। इससे स्पष्ट है कि बच्चे के व्यक्तित्व का निर्माण गर्भावस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है। अतः, बुद्धिमान माता-पिता बच्चे के गर्भ में आते ही सतर्क होकर शुद्ध-सात्त्विक जीवन जीते हैं। इसके फलस्वरूप उन्हें सुयोग्य एवं होनहार सन्तान प्राप्त होती है। किन्तु, जिनके आहार-विचार-व्यवहार तामसिक होते हैं, उनके यहां उद्दण्ड-लम्पट-चाण्डाल प्रकृति की सन्तान का जन्म होता है। आगे चलकर ऐसे बच्चे परिवार, समाज और देश के लिए सिरदर्द बनते हैं। इसलिए, प्रत्येक माँ-बाप का कर्तव्य है कि वे शुरु से ही सतत शुद्ध, सरल, सात्त्विक एवं मर्यादित जीवन जियें।

जन्मोपरान्त

एक योग्य किसान खेत में फसल रोपने के बाद, कभी भी निश्चिन्त होकर आराम से नहीं बैठता। बीज अंकुरित होने के बाद वह खेत की निरन्तर निगरानी करता है, समय पर खाद-पानी देता है और कीटाणुओं आदि से उसकी रक्षा करता है। ठीक इसी प्रकार, माता-पिता को चाहिए कि बच्चे के जन्म के पश्चात् वे उसकी सर्दी-गर्मी एवं किसी भी प्रकार के संक्रमण आदि से सतत रक्षा करें और उसे सुपाच्य एवं सन्तुलित आहार दें।

दो बैडरूम्स की पाश्चात्य संस्कृति को छोड़कर, एक बैडरूम की अपनी भारतीय संस्कृति को अपनाएं। अन्यथा, यदि अपने बच्चों को छोड़कर माता-पिता अलग कमरे में रंगरेलियां मनाएंगे, तो निश्चित रूप से उनके बच्चे बड़े होकर उन्हें वृद्धाश्रम भेजेंगे।

इसके साथ-साथ, माता-पिता अपने बच्चे के लिए अनुकरणीय व्यक्ति बनें, अर्थात् मन-वचन-कर्म से कभी भी ऐसी कोई गति न करें, जिससे बच्चे के मन पर विपरीत प्रभाव पड़े। उसे गलत संगत में पड़ने से भी बचाएं। प्रत्येक माता-पिता के हृदय में स्वाभाविक ही अपनी सन्तान के लिए असीम स्नेह होता है। प्यार होना बहुत अच्छी बात है, किन्तु उसका प्रदर्शन हानिकारक होता है। इससे प्रायः बच्चे बिगड़ जाते हैं, जिसके फलस्वरूप आगे चलकर परेशानी होती है।

आप भले ही कितने भी धनाढ्य क्यों न हों, बच्चे के ऊपर पैसे को पानी की तरह मत बहाइये। उसे जेब खर्च सदैव आवश्यकता से कम ही दें, ताकि वह मितव्ययी बने। चाट-पकौड़ी, फास्ट फूड और मैगी आदि से उसे हमेशा दूर रखें और सादा जीवन उच्च विचार का पाठ पढ़ाएं।

आजकल प्रायः सभी माँ-बाप अपने बच्चों का ध्यान बचपन से ही धन-सम्पत्ति की ओर आकर्षित करते हैं। वे उन्हें सिखाते हैं कि बड़े होकर खूब पैसा कमाओ, भले ही इसके लिए झूठ और बेईमानी का सहारा लेना पड़े। किन्तु, ऐसे बच्चे जीवन में कभी भी सुख-शान्ति प्राप्त नहीं कर पाते, क्योंकि धन-सम्पत्ति का दूसरा नाम विपत्ति है। यदि आप चाहते हैं कि आपके बच्चे इस लोक में और परलोक में भी सुखी रहें, तो उन्हें बताइये कि भौतिकता और आध्यात्मिकता दोनों के बीच सन्तुलन बनाकर जीना ही सबके लिए हितकर होता है।

अपने बच्चे को एक आदर्श विद्यार्थी बनाएं। इसके लिए उसमें निम्न श्लोक के अनुसार पांच लक्षण विकसित करेंः
काक चेष्टा वकोध्यानं, श्वाननिद्रा तथैव च।
अल्पाहारी गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम्।।
अर्थात् उसमें कौवे जैसी सतर्कता, बगुले जैसी ध्यान की एकाग्रता, कुत्ते जैसी हल्की नींद होनी चाहिए। वह कम खाता हो और गृहासक्त न हो। उल्लेखनीय है कि गृहासक्त व्यक्ति घर से दूर जाने से सदैव घबराता है। इस कारण वह जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।

आपके घर में जिस भी इष्ट, देवी-देवता अथवा गुरु की साधना-आराधना होती हो या अन्य कोई धार्मिक अनुष्ठान होता हो, उसमें छोटेपन से ही बच्चों को अवश्य सम्मिलित करें। इससे अनायास ही वे धर्ममार्ग में बढ़ते चले जाएंगे। उन्हें आडम्बरों, पाखण्डों और अन्धविश्वासों से सदा दूर रखें। उन्हें नशामुक्त एवं शाकाहारी जीवन जीने तथा ब्रह्मचर्य का पालन करने के लिए प्रेरित करें।

बच्चा जब मानसिक रूप से परिपक्व हो जाय, तो उस पर कभी भी अपनी इच्छा न थोपें। उसे स्वतंत्रतापूर्वक सोचने का पूर्ण अवसर दें, अन्यथा वह दब्बू बन जाएगा। गम्भीर समस्याओं पर विचारविमर्श में उसे भी सम्मलित करें। इन्जीनियरिंग, मेडिकल अथवा विधि (कानून) आदि, जिसमें भी उसकी रुचि हो, ज्ञान की उसी शाखा में उसे उच्च से उच्च शिक्षा दें।

दण्डविधान

छोटे बच्चे स्वाभाविक ही समय-समय पर जाने-अनजाने गलतियां करते रहते हैं। माता-पिता का कर्त्तव्य है कि वे उन्हें शुरू से ही सही रास्ते पर रखें। जिस प्रकार एक अच्छा शिक्षक, एक सद्गुरु अपने शिष्य को दण्ड देता है, ताकि वह विद्धान्-ज्ञानवान् बन सके, ठीक इसी प्रकार अच्छे माता-पिता को भी अपने बच्चे को गलती करने पर दण्ड देना चाहिए, ताकि उसे सही-गलत का ज्ञान हो सके और वह दुबारा वैसी गलती न करे।

किन्तु, जब बच्चा समझदार हो जाय, तब दण्ड देने की बजाय, उसे समझाना अधिक अच्छा होगा कि उसने गलती की है और भविष्य में वैसा कभी नहीं होना चाहिए। समझाने का तरीका भी हतोत्साहित करने वाला नहीं, अपितु सही मार्ग पर बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने वाला होना चाहिए। उदाहरणार्थ, ‘बेटे, तुम बहुत अच्छे हो, किन्तु जो कुछ तुमने किया है, वह अच्छा नहीं है।’ इस प्रकार के व्यवहार से बच्चे के अन्दर आत्मविश्वास जगेगा, जो उसको भावी जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए अत्यन्त लाभकारी होगा। बात-बात पर डांटने-डपटने और पीटने से बच्चे प्रायः ढीठ हो जाते हैं और सुधरने की बजाय, वे बिगड़ जाते हैं। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित सिद्धान्त बहुत उपयोगी हैः
लालयेत् पंचवर्षाणि, दश वर्षाणि ताडयेत्।
प्राप्ते तु षोडशे वर्षे, पुत्रे मित्रवत्माचरेत्।।
अर्थात् बच्चे को पांच वर्ष की उम्र तक खेलने दो, अगले दस वर्ष तक कठोर अनुशासन में रखो और जैसे ही वह सोलहवें वर्ष में प्रवेश करे, उसके साथ मित्रवत् व्यवहार करो।

अच्छा स्वास्थ्य 

कुछ माँ-बाप एयरकण्डीशंड कमरे में कुशंड गद्दों पर लेटाकर और तरह-तरह के आराम देकर अपने बच्चों को बहुत नाज़ुक एवं आरामतलब बना देते हैं। ऐसे बच्चे प्रायः बीमार, आलसी और कमजोर होते हैं।

इसलिए, प्रारम्भ से ही बच्चे को अधिक से अधिक प्रकृति के सन्निकट रखना चाहिए। उसमें गर्मी और सर्दी को झेलने की क्षमता पैदा करनी चाहिए। एक प्रकार से उसे ‘रफ ऐण्ड टफ’ बनाना चाहिए, ताकि वह भावी जीवन में आने वाली सम्भावित कठिनाइयों का सामना साहस के साथ कर सके। कार, स्कूटर अथवा मोटरबाइक पर चलने की बजाय, उसे अधिक से अधिक पैदल चलने का अभ्यासी बनाएं। उसके अन्दर योगासन एवं प्राणायाम की भूख पैदा करें, जिससे वह आजीवन पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द ले सके। इस प्रकार, सदा-सर्वदा वह जड़ता एवं आलस्य से दूर रहेगा और कर्मवान् बनेगा।

मानवीय मूल्य

मनुष्य में यदि मानवीय मूल्य नहीं हैं, तो वह पशु और दानव के समान है। इसलिए प्रत्येक माता-पिता का धर्म और कर्तव्य है कि वे अपनी सन्तान को उदात्त मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत करें। समाज की वर्तमान दुरवस्था का सबसे बड़ा कारण आज के जनसामान्य में मानवीय मूल्यों का अभाव ही है। इसे भावी पीढ़ी के अन्दर जगाकर ही ठीक किया जा सकता है। अतः हमें चाहिए कि अपने बच्चों में अनुशासन, धैर्य, संयम, सन्तोष, सहृदयता, सत्यवादिता, संवेदनशीलता, सहनशीलता, क्षमाशीलता, विवेकशीलता, अहिंसा, प्रेम, सौहार्द, निःस्वार्थता, उच्च चरित्र एवं परोपकारिता आदि मानवीय मूल्यों को जाग्रत् करें। इसी से यह धरा सुख, शान्ति एवं आनन्द के साथ रहने योग्य बन सकेगी।

कर्तव्यपरायणता

बॉर्डर पर यदि फौज के सिपाही अपना कर्तव्य न निभाएं, तो क्या होगा? इसी प्रकार कर्तव्यपालन के बिना परिवार, समाज और देश खतरे में पड़ जाते हैं। अतः बच्चों में प्रारम्भ से ही यह भावना जगाएं कि वे अपनी जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा के साथ पूरी करें। प्रारम्भ से ही वे अपने शरीर, कपड़ों और पुस्तकों आदि को संभालकर रखने का अभ्यास करें। तदुपरान्त, घर की छोटी-मोटी जिम्मेदारियां पूरी करें। इसके साथ-साथ जातपांत का भेदभाव भी कभी उनके मन में नहीं आने दें। अपने परिवार में भाई-बहनों में भी समान भाव रखें।

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