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How spend your old age
वृद्धावस्था कैसे बिताएं?

वृद्धावस्था कैसे बिताएं? (How spend your old age)

अगर आप समाज में इधर-उधर निगाह डालें, तो आपको निन्यानवे प्रतिशत बूढ़े लोग दुःखी मिलेंगे। इनमें कोई अपने बेटे-बहू से परेशान है, तो कोई अपनी पत्नी से और कोई अपने भाई-भतीजों से। अनेकों को कोई न कोई स्वास्थ्य समस्या है। किसी की पीठ में दर्द है, तो किसी के घुटनों में। किसी को खांसी है, तो किसी को नींद नहीं आती। कोई-कोई जिन्दगी से इतना तंग आ चुका है कि रात-दिन यही प्रार्थना करता है कि भगवान् उसे जल्दी उठा लें। प्रश्न उठता है कि क्या बुढ़ापा इसीलिए आता है? या इसे हम आनन्दमय भी बना सकते हैं?
इस जहां की हर चीज, हमने फानी (नश्वर) देखी, 
जो जाके न आए, वो जवानी देखी।
सबसे खराब खुद, अपना आपा देखा,
जो आके न जाए, वो बुढ़ापा देखा।।
हर प्राणी का शरीर जन्मता है, बढ़ता है, क्षीण होता है और अन्त में नष्ट हो जाता है। वृद्धावस्था क्षरणशील शरीर का एक अनिवार्य पड़ाव है और मरण उसकी परिणति है। बचपन, जवानी और बुढ़ापा आना शरीरयात्रा का स्वभाव है। प्रत्येक शरीर को इनमें से गुजरना ही पड़ता है। यह प्रकृति का अटल नियम है।

बचपन जीवन का प्रभात, जवानी मध्याह्न और बुढ़ापा सायंकाल है। आमतौर से मनुष्य बचपन को खेल-कूद में और जवानी को मौज-मस्ती में गवां देता है। अन्त में, जब जीवन की शाम आती है, तो वह बीते दिनों को याद कर-करके पछताता है और बुढ़ापे के बोझ से मुक्ति पाने के लिए जीवन की रात्रि के आगमन की कामना करता है।
शरीर वृद्ध होगा, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह नितान्त अपरिहार्य है। इसे किसी औषधि या तंत्र-मंत्र से रोका नहीं जा सकता। इसलिए बुढ़ापे का रोना, अविवेक है, समझदारी नहीं है। यदि हम चाहें, तो इसे भी हंसते-मुस्कुराते हुए गुजार सकते हैं।

निरन्तर गिरते मूल्य

एक समय था, जब हमारे समाज में अधिकतर संयुक्त परिवार ही हुआ करते थे। ज्ञान एवं अनुभव की ऊंचाई पर पहुंचे हुए बूढ़े लोग तब श्रद्धा व सम्मान से लदे वट वृक्ष के समान होते थे। उनकी छाया में बैठकर युवा पीढ़ी बहुत कुछ सीखती, मार्गदर्शन प्राप्त करती और स्वयं को सुरक्षित अनुभव करती थी। इसीलिए तब बच्चे भी उनके आज्ञाकारी होते थे और वे अपने बड़ों का बहुत आदर करते थे। यही कारण है कि हर घर में बूढ़ों की खूब सेवा-शुश्रूषा होती थी। ऐसा करके बच्चे अपने आपको कृतकृत्य महसूस करते थे।

धीरे-धीरे भौतिकवाद आया, युग अर्थप्रधान हुआ, पश्चिमी बयार चली और नई पीढ़ी के ऊपर पाश्चात्य संस्कृति का भूत सवार हो गया। उन्हें अपने बड़ों की आज्ञा का पालन करना गुलामी लगने लगा और उन्होंने स्वतन्त्र रूप से रहना बेहतर समझा। इसके फलस्वरूप संयुक्त परिवार टूटने लगे और एकल परिवार का चलन शुरू हो गया।
यहीं से शुरू हुआ बड़ों की उपेक्षा और अनादर का दौर। अब बड़े-बूढ़े अगली पीढ़ी के लिए बोझ बन गए। वे उन्हीं बच्चों के उत्पीड़न और अत्याचारों का शिकार होने लगे, जिन्हें उन्होंने बड़े अरमानों से यह सोचकर पाला था कि वे कभी उनके बुढ़ापे का सहारा बनेंगे। वर्तमान स्थिति

आज समाज में अधिकांश बूढ़ों की हालत अत्यन्त शोचनीय है-- 

निराशा, कुण्ठा, कुढ़न और एकाकीपन! उन्हें देखकर, वास्तव में, रोना आता है। बच्चों को वे फूटी आंख नहीं सुहाते। सेवा-शुश्रूषा तो बहुत दूर की बात है, हर पल वे यही सोचकर कुढ़ते रहते हैं कि यमराज के यहां न जाने इनकी फाइल कहां खो गई है, जो इतना बूढ़े होने पर भी वहां से इनका बुलावा नहीं आ रहा है! और, बेचारे बूढ़े अपने बच्चों से बात करनेे को तरसते हैं। जिन्हें उन्होंने कभी बड़े लाड़-प्यार से बोलना सिखाया था, वे ही आज उन्हें चुप रहने की हिदायत देते हैं, ‘‘तुम चुप रहो!’’

यह कैसी विडम्बना है कि एक माँ-बाप ने जिन चार बच्चों को अपना पेट काटकर पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया और उन्हें उनके पैरों पर खड़ा किया, वे चारों मिलकर उन दोनों को नहीं संभाल सकते! और, घोर कष्ट की बात तो यह है कि ऊपर से वे पूछते हैं, ‘‘तुमने हमारे लिए किया ही क्या है?’’ दुःखी होकर यदि किसी ने मुंह खोला, तो कहते हैं, ‘‘यह सब करके तुमने हमारे ऊपर कोई एहसान नहीं किया है। यह तो तुम्हारा फर्ज़ था।’’ किन्तु, उन्हें उनका स्वयं का फर्ज दिखाई नहीं देता। आखिर, कौन दिलाए उन्हें उनके माँ-बाप के उपकारों की याद?
आज बिरले ही ऐसे बूढ़े होंगे, जिन्हें उनके बच्चों से समुचित अवधान एवं मान-सम्मान मिल रहा है। और, वास्तव में वे परम सौभाग्यशाली हैं, जो उन्हें ऐसे होनहार एवं सेवाकारी बच्चे मिले हैं।

विभिन्न प्रकरण

जिस विभाग में मैं कार्यरत था, उसी से एक मिस्त्री रिटायर हुआ था। उसने अपने दोनों बेटों को पढ़ा-लिखाकर इस योग्य बनाया कि वे दोनों सरकारी सेवा में आ गए थे। रिटायरमैण्ट से पहले ही उसने अपना मकान भी बना लिया था और आटाचक्की लगाकर स्वयं उसे चलाने लगा था। वह किसी प्रकार से भी अपने बच्चों के ऊपर बोझ नहीं था, बल्कि उसके कारण उनको अतिरिक्त आमदनी होती थी। इस पर भी वह तिरस्कारपूर्ण जीवन जी रहा था। एक दिन उसने अपनी एक पुत्रवधू से कहा, ‘‘बेटा, मेरे लिए एक प्याली चाय बना दो।’’ इस पर वह तमककर बोली, ‘‘तेरा तो पूरे दिन यही काम रहता है।’’ पुत्रवधू के इस कटु व्यवहार से उसे इतना क्षोभ हुआ कि बिना कुछ कहे वह उठा और जाकर शहर के बीच से बह रही नहर में छलांग लगा दी। क्या एक प्याली चाय की कीमत उसकी जान से भी ज्यादा थी?

शासकीय इण्टर कॉलेज से रिटायर्ड एक प्रिन्सिपल थे। उनके परिवार में उनके अतिरिक्त उनकी पत्नी, इकलौता पुत्र, पुत्रवधू और पोता-पोती थे। उनका अपना मकान था, जिसमें भूतल पर वे स्वयं तथा प्रथम तल पर बेटा सपरिवार रहता था। बेटा डिग्री कॉलेज का प्रिन्सिपल था और पुत्रवधू भी शिक्षिका थी। इस प्रकार उनकी आर्थिक स्थिति बड़ी सुदृढ़ थी। किन्तु, बाप-बेटे दोनों का खाना अलग-अलग बनता था। इसके अतिरिक्त, बेटे की नीचता यहां तक थी कि वह और उसकी पत्नी उनसे बोलते तक नहीं थे। जरूरत पड़ने पर वार्तालाप बच्चों के माध्यम से होता था। इस प्रकार, प्रिन्सिपल साहब ने जीवन के अन्त तक घोर उपेक्षा का जीवन जिया। यद्यपि उन्हें इतनी पेंशन मिलती थी कि वे किसी प्राईवेट वृद्धाश्रम में सुख-सुविधापूर्वक जीवन जी सकते थे, किन्तु वे ऐसा इसलिए नहीं कर सके कि समाज क्या कहेगा?

बुज़ुर्गों को दुःख देने के लिए प्रायः उनके बच्चों को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। किन्तु, कुछ प्रकरण ऐसे भी हैं, जहां बूढ़े लोग अपने दुःखी जीवन के लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। बच्चे तो उनकी भरपूर सेवा करना चाहते हैं और कर भी रहे हैं, किन्तु उनकी गतिविधियां ऐसी हैं कि उनके कारण उनके साथ-साथ उनके सेवाकारी बच्चे भी दुःखी रहते हैं।

एक रिटायर्ड डॉक्टर थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी, इकलौता पुत्र, पुत्रवधू और पोता-पोतियां थे। उन्हें रहने के लिए आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित अलग कमरा मिला हुआ था तथा खाने-पीने और कहीं पर भी आने-जाने की कोई दिक्कत नहीं थी। किन्तु, उनकी शिकायत यह थी कि किसी काम में उनकी राय नहीं लीजाती और बेटा मनमानी करता है। वह बहुत खर्चीला है। उसे कार खरीदने की क्या जरूरत थी? आदि-आदि। उधर, परिवार के बाकी लोग उनसे इसलिए परेशान थे कि वे बाहर के लोगों से बात करते-करते प्रायः यह भूल जाते थे कि उनके सामने क्या बात कहनी है और क्या नहीं? मसलन, सड़क पर अपने साथ टहलते हुए लोगों को वे अक्सर बताया करते थे कि उन्होंने अपनी पोतियों के विवाह के लिए कितना सोना खरीद रखा है और कितने रुपये फिक्स्ड डिपॉज़िट में डाल रखे हैं? वगैरह-वगैरह। साथ ही, उनके सामने अपने घर के हर सदस्य की बुराई भी करते थे। इस सबके बावजूद उनका पुत्र और पुत्रवधू उन्हें झेलते रहे और अन्त समय तक उनकी सेवा करते रहे।

अब डॉक्टर साहब को यह कौन बताता कि अपनी जिन्दगी तो आप स्वतंत्रतापूर्वक जी चुके हैं। जीवन के आखिरी पड़ाव पर अब आप काहे परेशान हैं? अपने पुत्र-पुत्रवधू को भी स्वतंत्रतापूर्वक अपना जीवन जीने दो। वे कोई दूध पीते बच्चे तो हैं नहीं।

धन्य हैं ऐसे लोग!

मेरे एक मित्र हैं, जो उस समय सिंचाई विभाग में एक राजपत्रित अधिकारी (Gazetted officer) थे। उनके पिता जी के निधन से उनकी माता जी को ऐसा आघात लगा कि वह धीरे-धीरे पूरी तरह से विक्षिप्त हो गईं। उन्हें भूख-प्यास और मल-मूत्र त्यागने तक की भी सुधबुध नहीं रही।

एक बार छुट्टी के दिन मेरा उनके घर पर जाना हुआ। देखता क्या हूँ कि वह अपनी माँ को इस तरह से भोजन करा रहे हैं, जैसे कोई माँ अपने सालभर के बच्चे को कराती है। आश्चर्य से मैंने पूछा, ‘‘यह क्या?’’ वह बोले, ‘‘अब माता जी स्वयं खाना नहीं खा सकती हैं। इन्हें इस बात का भी होश नहीं रह गया है कि भोजन कितनी मात्रा में लेना है? यह तो अपने कपड़े भी नहीं बदल सकतीं। इसलिए इनके सारे काम मैं स्वयं ही करता हूँ, यहां तक कि अपने बच्चों, पत्नी और घर के नौकर को भी यह सब करने के लिए नहीं कहता, क्योंकि माँ तो वह मेरी हैं, उनकी नहीं।’’

उनका नियम था कि प्रातः उठकर सबसे पहले वह अपनी माँ के मल-मूत्र के कपड़े ठीक उसी तरह धोकर साफ करते थे, जिस प्रकार कभी उनकी माँ उनके स्वयं के कपड़े साफ किया करती होंगी, जब वह अबोध शिशु थे। प्रतिदिन उन्हें नहला-धुलाकर और साफ कपड़े पहनाकर ही, वह स्वयं तैयार होते और ऑफिस जाते थे। उनका यह क्रम कोई पांच-दस दिन नहीं, बल्कि पूरे चार वर्ष तक चला, जब तक माता जी स्वर्ग नहीं सिधार गईं। और, इस दौरान एक विशेष बात यह रही कि इस बात को लेकर उनके माथे पर कभी भी कोई शिकन तक नहीं देखी गई। आज के युग में ऐसा कोई सुपुत्र मिलेगा क्या?

निर्धन परिवारों में और ग्रामीण अंचलों में तो बूढ़ों की हालत अत्यधिक दयनीय है। उनके बच्चे प्रायः उन्हें भीख मांगने के लिए विवश कर देते हैं या फिर घर से ही निकाल देते हैं। यही कारण है कि आज समाज में नित नए वृद्धाश्रम खुल रहे हैं। पहले यह शब्द कभी भी सुनने को नहीं मिलता था। बूढ़े लोगों को उनके बच्चों के उत्पीड़न का शिकार होने से बचाने के लिए अभी कुछ साल पहले भारत सरकार ने एक कानून भी बनाया था। किन्तु, यह कितना हितसाधक होगा, यह देखने की बात है?

वार्द्धक्य कैसे संवारें?

बुढ़ापा आने पर उसे सवांरने की बात सोचना ठीक वैसा ही है, जैसा सांप के निकल जाने के बाद उसकी लकीर को पीटना। वास्तव में, इसके लिए बहुत पहले से तैयारी करनी पड़ती है। यदि ऐसा नहीं करते, तो इसे अबोधता ही कहा जाएगा। इसीलिए प्रस्तुत लेख वृद्धों की अपेक्षा युवाओं के लिए अधिक उपयोगी है।
जो लोग अपनी जवानी टी.वी. देखने, फिल्म देखने, रासरंग और मौज-मस्ती में गुजार देते हैं, प्रायः उनका बुढ़ापा बिगड़ जाता है और वे जीवनपर्यन्त दुःखी रहते हैं। जो बुढ़ापे का पूर्वाभास कर लेते हैं और समय रहते उसके स्वागत की समुचित तैयारी कर लेते हैं, उन्हें बूढ़ा होने पर कोई परेशानी नहीं होती।
वे लोग वास्तव में, धन्य हैं और उनके ऊपर माता भगवती की असीम कृपा है, जो अपनी जवानी के शुरूआती दिनों से ही संभलकर चलते हैं। ऐसे सन्मार्गगामी लोगों का बुढ़ापा अत्यन्त सुखद होता है। वे लोक एवं परलोक दोनों को ही संवार लेते हैं।

बुढ़ापे में आकर उसकी मार झेल रहे दुःखी लोग प्रायः भगवान् की ओर उन्मुख होते हैं, किन्तु तब तक बड़ी देर हो चुकी होती है। विकृत जीवनशैली के चलते मन पर पड़े कुसंस्कारों के आवरण एवं निरन्तर गिरते स्वास्थ्य के कारण भगवद्भजन में भी उनका मन नहीं लगता। यह स्थिति, वास्तव में, बड़ी विकट होती है--निराशा, पश्चात्ताप और मृत्यु का इन्तजार। बुढ़ापे को सुखद बनाने के लिए जरूरी है कि हमारा स्वास्थ्य ठीक हो और हम सतत क्रियाशील रहें।

अच्छा स्वास्थ्य

हमारे धर्म-कर्म का सबसे बड़ा साधन हमारा शरीर ही है। अतः इसको साफ-सुथरा और स्वस्थ बनाए रखने का सतत प्रयास कीजिये।

यह बात सदैव याद रखिये कि रोग का जन्म असंयम से होता है और असंयम का जनक अविवेक है, अर्थात् क्या करना चाहिए, क्या नहीं और क्या खाना चाहिए, क्या नहीं, आदि की समझ न होना। इससे मन विकृत (अस्वस्थ) होता है, जो तन को भी अस्वस्थ कर देता है।

इसलिए जवानी के दिनों से ही हमें अपना आहार-विहार (आचरण) संयमित रखना चाहिए। जीभ के स्वाद के पीछे न पड़कर, सदैव हल्का, सुपाच्य, पौष्टिक एवं स्वास्थ्यकर आहार लेना चाहिए। नशे का सेवन और मांसाहार करने वाले लोग वृद्धावस्था में जाकर बहुत दुःखी होते हैं। यही हाल उनका होता है, जो कोई भी शारीरिक श्रम नहीं करते और आराम से पड़े हुए अनापशनाप कुछ भी खाते-पीते रहते हैं। उनका मोटापा बढ़ना लाजमी है। ऐसे लोगों को ब्लडप्रैशर और शुगर आदि रोग जरूर होते हैं तथा प्रायः वे पचास साल की उम्र से पहले ही भगवान् को प्यारे होजाते हैं।

कोई भी मौसम हो, सूर्योदय से पूर्व बिस्तर अवश्य छोड़ देना चाहिये। तत्पश्चात् नित्यक्रिया और स्नानादि से निवृत्त होकर खुली शुद्ध हवा में घूमना तथा प्राणसाधना एवं ध्यानसाधना आदि करना चाहिये। जिस प्रकार अत्यधिक श्रम करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, उसी तरह आवश्यकता से अधिक विश्राम करना भी ठीक नहीं है। इससे शरीर में जड़ता आती है। इसलिए आलस्य त्यागकर अपने मन एवं शरीर को सदैव क्रियाशील रखना चाहिये। इस प्रकार, जो आपकी ऊर्जा निरर्थक विचारों में नष्ट होती है, उसकी बचत होगी और आप अपने आपको सदैव तर-ओ-ताजा महसूस करेंगे। ऐसा संयमित एवं नियमित जीवन जीने वाला व्यक्ति अन्तिम सांस तक जवान ही रहेगा। उसे बुढ़ापा कभी आएगा ही नहीं, भले ही उसका शरीर बूढ़ा होजाय। वह इस कहावत को झूठी साबित कर देगा कि जवानी जाकर कभी वापस नहीं आती।

वर्ष 1957 में जब मैं राजकीय सेवा में आया, उस समय उसी विभाग में मुझसे काफी सीनियर मेरे एक सहकर्मी थे। वह अगले वर्ष ही रिटायर होगए थे। बात वर्ष 1983 की है। एक दिन मैं पैदल ही बैंक जा रहा था। पीछे से साईकिल पर सवार वही सज्जन आगए। अभिवादन के बाद, वह साईकिल से नीचे उतर गए और पूछा, ‘‘कहां जा रहे हो?’’ मैंने कहा, ‘‘बैंक में कुछ काम है।’’ बोले, ‘‘तो आओ, बैठो पीछे। मैं भी उधर ही जा रहा हूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘आप बुज़ुर्ग हैं। इसलिए साईकिल मैं चलाता हूँ। आप पीछे बैठें।’’ वह हंसते हुए बोले, ‘‘क्या बातें करते हो? I am eighty-year- young!’’ अर्थात मैं अस्सी वर्षीय जवान हूँ। और, बार-बार मना करने के बावजूद, जिद करके उन्होंने मुझे साईकिल पर पीछे बैठाया तथा बड़े आराम से बैंक तक ले गए। मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ। फलतः मैंने उनसे उनकी सेहत का राज पूछा। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, ‘‘Tesion-free active life!’’ अर्थात् तनावमुक्त क्रियाशील जीवन। ऐसे लोग वास्तव में अनुकरणीय हैं।

क्रियाशील जीवन

‘पहला सुख निरोगी काया।’ यदि आप स्वस्थ हैं, तो अगली बात आती है अपने आपको क्रियाशील रखने की। रिटायरमैण्ट के बाद जीवन में सहसा एक खालीपन आता है। समस्या होती है, क्या करें, कहां जाएं? इसलिए रिटायर्ड लोग प्रायः अखबार पढ़ते हैं, टी.वी. देखते रहते हैं या दूसरे बूढ़ों से गपशप किये जाते हैं। वास्तव में, यह जीवन के अमूल्य समय की बर्बादी है और स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है।
कुछ लोग रिटायर होने के बाद अपने आपको व्यस्त रखने के लिए किसी दूसरी जगह नौकरी करने लगते हैं या कोई छोटी-मोटी दुकान खोलकर बैठ जाते हैं। रिटायर्ड शिक्षक प्रायः ट्यूशन पढ़ाने लग जाते हैं। यह तो फिर भी कुछ हद तक ठीक है, किन्तु ऐसा करके वे स्वयं को पुनः उसी दलदल में धकेल देते हैं, जिससे निकले थे--अर्थलिप्सा और पैसे का मोह!

बुढ़ापा आने से पहले ही, यदि आप किसी सृजनात्मक अथवा परोपकारिता के कार्य में लग जाते हैं, तो इससे अच्छी कोई बात नहीं है। इसलिए शुरू से ही किसी परोपकारी संस्था से जुड़े रहो, ताकि समय आने पर पूर्णरूप से उसी के प्रति समर्पित हो जाओ और खाली न रहकर सदैव ऐक्टिव रहो।

परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के द्वारा पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम के रूप में एक ऐसे अनुपम पवित्र धाम की स्थापना की गई है, जहां पर बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के हर आयुवर्ग के लोगों के लिए सेवाकार्य या साधना करने का सुअवसर सुलभ है। महाराजश्री का मानना है कि कोई भी व्यक्ति कभी रिटायर नहीं होता, भले ही सरकार उसे रिटायर कर दे। हर कोई अपनी क्षमता के अनुसार अन्तिम श्वास तक भी कोई न कोई कार्य करता रह सकता है। चूंकि महाराजश्री लोगों को कर्मवान् बना रहे हैं, अतः यहां आकर सभी को अपनी क्षमता के अनुसार सेवाकार्य या साधना करना ही होता है। निठल्ले लोगों के लिए यहां पर कोई स्थान नहीं है।

इस आश्रम में रहने वालों को नानाविध लाभ होते हैं। यहां पर अनन्तकाल तक के लिए चल रहे अखण्ड श्री दुर्गाचालीसा पाठ एवं परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् की एकान्त साधना के फलस्वरूप यहां का कण-कण ऊर्जित हो गया है। अतः यहां पर रहने वाले लोग सदैव ऊर्जा से सराबोर रहते हैं। इसके अतिरिक्त, वे महाराजश्री के द्वारा किये जा रहे जनकल्याणकारी कार्यों से सम्बन्धित निष्काम सेवा में क्रियाशील रहते हैं। साथ-साथ यहां की जीवनशैली एवं नित्य साधनाक्रम अपनाकर उनकी आत्मा पर पड़े संस्कारों के आवरण नष्ट होते हैं। इससे वे जीवन के पूर्णत्व की प्राप्ति के अधिकारी होते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वे परम पूज्य गुरुवरश्री की दिव्य चेतना तरंगों से अहर्निश घिरे रहते हैं। तब बुढ़ापे की क्या मजाल कि उनको स्पर्श भी कर सके? अतः इस आश्रम में रहने वालों का सहज ही कायाकल्प होजाता है और उनका पीला पड़ा मुर्झाया चेहरा लालिमा से दमकने लगता है।

यदि आप अपने जीवन को संवारकर उसे आनन्दमय बनाना चाहते हैं, तो पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम में आपका स्वागत है। ज्ञातव्य है कि यहां पर सभी के लिए भोजन एवं आवास व्यवस्था सदैव निःशुल्क रहती है। किन्तु, यहां पर किसी भी प्रकार के नशे, मांसाहार, चरित्रहीनता एवं मौज-मस्ती का पूर्ण निषेध है।
सौभाग्यशाली हैं वे लोग, जो अपने युवाकाल में ही पंचज्योति शक्तितीर्थ सिद्धाश्रम से जुड़ गए हैं। उनसे भी अधिक सौभाग्शाली वे हैं, जो युवाकाल से सिद्धाश्रम में वास कर रहे हैं। और, परम सौभाग्यशाली हिमालय की कन्दराओं में तपस्या करने वाले वे ऋषि हैं, जो अपना शरीर त्यागने के बाद सिद्धाश्रम में आकर आंखें खोल रहे हैं।

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