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global warming


धरती का दुश्मन (global warming)

अब चाहे हम बहुचर्चित फिल्म 2012 की बात करें या जलवायु परिवर्तन के विशेषज्ञों की। यह तो तय है कि प्रकृति का जिस तरह से दोहन किया जा रहा है, उससे कहीं न कहीं समूची धरती के जीवन पर यह प्रश्नचिन्ह सा लगा दिया गया है। बहुचर्चित फिल्म 2012 में दिखाया गया है कि हमारी पृथ्वी सूर्य की धधक से नष्ट हो जाती है। इस धधक के परिणामस्वरूप पृथ्वी के केन्द्र में भीषण गर्मी उत्पन्न हो जाती है जिस कारण पृथ्वी के भीतरी परतों में उथल-पुथल मच जाता है और उसका परिणाम प्रलय के रूप में मानव जीवन के सामने आता है, और ऐसी ही बात कहीं न कहीं जलवायु परिवर्तन के जानकार आई.पी.सी.सी. के अध्यक्ष श्री पचौरी अपने वैज्ञानिक अध्ययन को आधार बनाकर विश्व के तमाम मुल्कों को यह जानकारी देते हैं कि अगर ग्रीन हाउस गैसों (जीएचजी) का उत्सर्जन जारी रखते हैं तो भूमण्डलीय तापमान में बेतहाशा वृद्धि हो जाएगी। जिसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन हो जाएगा।

समूचा विश्व कहीं न कहीं पिछले दशक से वातावरण में लगातार बढ़ती गर्मी को महसूस कर रहा है। इस दशक की गर्मी अब तक की सबसे ज्यादा तीक्ष्ण रही है। मानव सभ्यता ने भीषण चक्रवात, तूफान, अकाल, बरसात, सुनामी व भूकम्प के तेज झटकों को महसूस किया है। इससे विश्व में भारी जान-माल का नुकसान भी हुआ है। अगर हम भारत की बात करें तो इस वर्ष हमारे देश ने भी सूखा, असामान्य बारिश एवं चक्रवात ने अपना भीषण रूप दिखाया जिससे हमारे देश को भी भारी नुकसान उठाना पड़ा। जलवायु परिवर्तन से सिर्फ जान व माल का खतरा नहीं अपितु इसका खतरा मानव सभ्यता व हमारे समाज को भी है। भीषण जलवायु परिवर्तन से असफल देशों की संख्या में वृद्धि होगी, जिससे आतंकवाद, हथियारों की तश्करी, नशीली दवाओं का उत्पादन और विस्थापन में बेतहाशा वृद्धि होगी जिससे समूचा विश्व और अधिक असुरक्षित हो जाएगा। लेकिन कोपेनहेगन के बेल्ला सेंटर में जलवायु परिवर्तन पर चल रहे शिखर सम्मेलन में बातचीत के लिए जुटे 192 देशों के प्रतिनिधियों के रूख से यह कतई प्रतीत नहीं होता है कि वे पृथ्वी पर उत्पन्न इस भीषण खतरे को लेकर चिंतित हैं। सम्मेलन की शुरूआत में अध्यक्ष कोनी हेडेगार्ड ने अपनी बातों से उत्साह जगाने की कोशिश की, कि इतिहास में कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब विश्व अलग-अलग रास्ते में जाने का चुनाव कर सकता है किन्तु यह एक विशिष्ट और निर्णायक क्षण है जहाँ से हम हरित, समृद्ध और सुरक्षित भविष्य की ओर जाने का रास्ता चुन सकते हैं या फिर गतिरोध वाला रास्ता, जिस पर हम जलवायु परिवर्तन के बारे में कुछ भी न करें और उसका खामियाजा हमारी सन्तानें व उनके बाद वाली सन्तानों को भरना पडे़। जाहिर है चुनाव करना कतई कठिन नहीं है।

किन्तु विडम्बना तो यह है कि इन सच्ची बातों को कोई भी गम्भीरता से सुनने व मानने को तैयार ही नही लगता। लगातार पांचवी कोपेनहेगन की बातचीत का यह चरम बिन्दु था जहाँ से पृथ्वी को बचाने के लिये पूरा प्रारूप निकलना चाहिए लेकिन हेडेगार्ड और अन्य नेता अब इसे शर्म के साथ ‘‘प्रक्रिया की शुरूआत न कि अन्त‘‘ बता रहे थे। 18 दिसम्बर को समाप्त हुए इस सम्मेलन में कोई सामूहिक फैसला नहीं हुआ बल्कि ऐसा जाहिर हुआ कि यह सम्मेलन एक राजनैतिक समझौते के रूप में समाप्त हो गया, जिसमें विकसित व विकाशसील देश मिलकर सब इच्छा जाहिर किया, बजाय इसके कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया और इसका तात्पर्य यही हुआ कि यह सम्मेलन एक गरमागरम बहस मात्र रह गया।

वैसे कोपेनहेगन सम्मेलन अपनी शुरूआत से ही असफल होने वाला था क्योंकि इस सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल को तथाकथित आद्यौगिक देशों को अपने जीएचजी उत्सर्जन में काफी रूप से अधिक कटौती का वचन देना था और दूसरा उन्हें अपनी प्रतिबद्धता भी साबित करनी थी जो 2012 से 2016 तक होनी थी। गौर करने वाली बात यह है कि प्रोटोकॉल के तहत अधिकांश देशों ने 2005 से 2012 तक की प्रतिबद्धता की पहली अवधि के लक्ष्यों को ही नहीं पूरा किया था। इस अवधि में तमाम देशों को 1990 के स्तर की तुलना औसत 5 प्रतिशत की कटौती करनी थी। किन्तु ऐसा किसी भी देश ने नही किया और आज विश्व जीएचजी उत्सर्जन 30 प्रतिशत तक बढ़ गया है। आई.पी.सी.सी. ने पहले ही कहा है कि अगर वैश्विक तापमान को दो अतिरिक्त सेंटीग्रेट के खतरे के बिन्दु से आगे बढ़ने से रोकना है तो औद्योगिक देशों को 2020 तक अपने जीएचजी स्तर में अपने 1990 के स्तर की तुलना 25 से 40 प्रतिशत करनी होगी। अब अगर बात अमेरिका समेत विश्व के आद्यौगिक व विकसित देशों की बात की जाए तो अधिकांश देश बमुश्किल 5 से 17 प्रतिशत तक ही कटौती करना चाहते हैं। भारत की ओर से बातचीत करने वाले चन्द्रशेखर दास गुप्ता इसे बहुत दुखद बताते हैं।

अमेरिका जो पृथ्वी का सबसे बड़ा शत्रु है क्योटो प्रोटोकॉल का वर्षों से अनुमोदन करने से इन्कार करने के बाद राजी हुआ कि वह अपने कार्बन उत्सर्जन में 2005 के स्तर से 17 प्रतिशत तक की कटौती करेगा। अगर आप इसे प्रोटोकॉल के कटऑफ वर्ष 1990 के अनुसार देखें तो यह कटौती मात्र 4 प्रतिशत है जबकि इसे तिगुनी होनी चाहिए। बातें तो और भी बहुत सी थीं जिनमें अमीर देशों को गरीब देशों पर जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप पड़ने वाले असर के लिए भारी मुवावजा देना था किन्तु ऐसा हो न सका। औद्योगिक देशों को स्वच्छ प्रौद्योगिकी का स्वरूप भी विकासशील देशों को देना था जिससे विकासशील देश भी अपने यहाँ उत्सर्जन को घटा सकें, लेकिन इन रसूखदार देशों ने यहाँ भी गरीब देशों से छल ही किया।

अब बात चाहे अमेरिका की हो या ऑस्ट्रेलिया की, चीन की हो या यूरोपीय देशों की, कोई भी देश आगे आकर सही रास्ते में चलने को तैयार नहीं है। ये राष्ट्र लगातार रीति और नीति बदलने की बात तो कह रहे हैं किन्तु कोई भी राष्ट्र वास्तविकता के साथ अमल कर पाने की स्थिति में नहीं है। अगर हम अमेरिका की बात करें तो वहाँ प्रति व्यक्ति जीएचजी उत्सर्जन औसत प्रति भारतीय के मुकाबले 18 गुना है। इन विकसित और धनाढ्य देशों में कई बड़ी-बड़ी लॉबियाँ हैं जो यथास्थिति को बनाऐ रखने के लिए 30 करोड़ डॉलर खर्च कर रही हैं। इन लॉबियों में एक कोयला लॉबी भी है जिसकी पैठ अमेरिका के 50 में से 22 राज्यों में हैं। इसके बाद अमेरिका की उस तेल लॉबी का नम्बर आता है जिससे जार्ज बुश के बहुत निकटस्थ सम्बन्ध थे और ऐसी न जाने कितनी लॉबियाँ हैं जो अपने फायदे के लिए कुछ भी करने को तैयार बैठी हैं। भले ही अमेरिकी पूर्व राष्ट्रपति बराक ने 2020 तक कार्बन उत्सर्जन में 17 फीसदी तक की कटौती का वायदा किया था। किन्तु यह वायदा उनके लिए भारी मुश्किलों वाला साबित हुआ, जिससे पार जा पाना ओबामा के लिए सम्भव नहीं हो सका। वैसे अमेरिका का मुख्य तर्क यह है कि क्योटो ने दुनिया के सबसे ज्यादा जीएचजी का उत्सर्जन करने वाले दो देशों चीन और भारत को शामिल नही किया हैं। अमेरिकी अड़ियलपन का यह स्वरूप किसी वायरस की तरह यूरोपीय देशो में भी फैल गया है। अब यूरोप भी कार्बन उत्सर्जन के भारी कटौती के वादे से पीछे हटने लगा है जो उन्होंने शुरू में किया था। एक समय यूरोप ने सन् 2050 तक अपने यहाँ जीएचजी उत्सर्जन में 50 फीसदी कटौती की बात कही थी किन्तु अमेरिका के औद्योगिक प्रतिस्पर्धा के मुकाबले में यूरोप भी पीछे नही रहना चाहता। कटौती करने के फलस्वरूप उत्पादन की लागत बढे़गी।

जलवायु परिवर्तन की वार्ता को अगर किसी एक बात ने सबसे तगड़ा झटका दिया है तो वह कारण है आर्थिक मंदी। रोजगार सुरक्षा सभी राष्ट्रों की प्राथमिकता बन गयी है। विकसित देश जब बेरोजगारी की दर कम करने की कोशिश कर रहे हैं तो वे न तो अपनी जीवनशैली मे कोई बदलाव चाहेंगे और न ही अर्थव्यवथा में किसी प्रकार का हेरफेर पसंद करेंगे, इसलिए सारे अमीर देश पिछले दो वर्षों से क्योटो प्रोटोकॉल को निष्फल करने की साजिश में जुटे हुए हैं। वैसे आस्टेªलिया एक ऐसा देश है जो विश्व में प्रति व्यक्ति जीएचजी उत्सर्जन करने में सबसे आगे है।

कोपेनहेगन बैठक के पहले आस्टेªलिया ने एक प्रस्ताव भी रखा था जिसमें प्रतिबद्धता की बात आने पर विकसित और विकासशील देशों के बीच अंतर को बिगाड़ने की कोशिश की गई थी। क्योटो प्रोटोकॉल में माना गया था कि औद्योगिक देशों पर ऐतिहासिक जिम्मेदारी है क्योंकि उन्होनें पिछले दो सदियों में वातावरण में टनों जीएचजी का उत्सर्जन किया है, इन देशों को न सिर्फ उत्सर्जन में कटौती करनी होगी बल्कि विकासशील देशों को आर्थिक मदद करनी होगी। चीन और भारत समेत जी-77 देशों ने पाया कि यह प्रस्ताव पूरे प्रोटोकॉल को ही पलट देने का प्रयास है ताकि इस पर नए सिरे से बातचीत हो। इस बीच अमीर देशों ने ज्यादा जरूरतमंद देशो को वित्तीय मदद देने का प्रस्ताव देकर जी-77 देशों में फूट डालने की कोशिश की। खासकर मालदीव जैसे द्वीपीय देशों को, जो खतरे में है। चीन और भारत को, जो स्वच्छ विकास व्यवस्था के तहत भारी रकम पा चुके हैं, चुप रखने के लिए उन्होंने कहा कि जंगलों को बचाने के लिए और मुआवजा दिया जाएगा, इस प्रकार वन कटाई और विनाश से उत्सर्जन में कमी के लिए एक कोष जारी किया गया जो ब्राजील में मदद करेगा। विकासशील देशों का रुख नरम रखने में असफल होने के बाद विकसित देश अब एक डेनिश प्रस्ताव पर जोर दे रहे हैं जो कोपेनहेगेन में निकलने वाला एक राजनैतिक समझौता होगा। ’’प्लेज ऐंड रिव्यू’’ नाम के इस प्रस्ताव को जी-77 और चीन पहले ही क्योटो प्रोटोकॉल के मुख्य प्रावधानों को नष्ट करने के प्रयास के तौर पर देख रहे हैं। कोपेनहेगेन में कोई वाजिब समझौता नही होता है तो नेताओं को दुनिया भर में आम जनता के गुस्से का सामना करना पडे़गा। खासकर औद्योगिक देशों में, जिन्हें अपने स्वार्थ के कारण पृथ्वी के दुश्मन के तौर पर देखा जा रहा है।

औद्योगिक देशों का गैर जिम्मेदाराना रवैया कहीं न कहीं उन्हें मानव सभ्यता के सबसे बड़े दुश्मन के रूप मे सामने लाकर खड़ा करता है और यह बात हमारी आशंका से पहले ही सत्य घटना के रूप में हमारे सामने न आ जाए।

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