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• इच्छाएं नहीं, आवश्यकताएं पूरी करें !(Finished need not desires)

Finished need not desires
do for need but not for desires

इच्छाएं नहीं, आवश्यकताएं पूरी करें !(Finished need not desires)

इच्छा किसी ऐसी वस्तु को पाने का विचार है, जो हमें पसन्द हो, किन्तु जरूरी नहीं है कि हर इच्छा की पूर्ति हो ही जाए। कोई व्यक्ति कितना भी सामर्थ्यशाली क्यों न हो, उसकी सारी इच्छाएं कभी भी पूरी नहीं हो सकतीं, क्योंकि इच्छाएं असीम हैं, अनन्त हैं।

आवश्यकता वह वस्तु है, जो जीने के लिए जरूरी है, जैसे खाना, पानी, स्वास्थ्यरक्षा आदि। आवश्यकताएं सीमित हैं और उनकी पूर्ति सदैव सम्भव होती है, जैसे प्यास लगने पर हम पानी पी लेते हैं और भूख लगने पर कुछ न कुछ खा लेते हैं।

महात्मा गांधी जी ने बिल्कुल सही कहा है-- इस धरती पर सब लोगों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए पर्याप्त है, किन्तु एक अकेले व्यक्ति का भी लोभ पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

प्रकृतिस्वरूपा ममतामयी माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा ने इन्सान को अनेकानेक शक्तियां प्रदान की हैं। उनमें से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण शक्ति है इच्छाशक्ति, अर्थात् किसी कार्य को अपने मन के अनुकूल करने की शक्ति। इसी के बल पर वह विभिन्न कार्य करता है। वास्तव में, बिना इच्छा के कोई भी कार्य नहीं हो सकता।
उदाहरणार्थ, किसी समय ताजमहल का निर्माण हुआ। उसके पीछे उस समय कोई इच्छा ही रही थी। विश्वभर में आज जो इतना भौतिक विकास एवं प्रगति दृष्टिगोचर हो रहे हैं, वे समय-समय पर इन्सान के मन में उठी किसी न किसी इच्छा का ही परिणाम हैं।

द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान जापान में हीरोशिमा एवं नागासाकी नगरों के ऊपर गिराए गए परमाणु बम ने कितनी तबाही मचाई थी! वह भी किसी इच्छा से ही हुआ होगा।

अतः इच्छाएं दो प्रकार की होती हैं-- सृजनात्मक (शुभ) एवं विध्वंसात्मक (अशुभ)। इस प्रकार, इच्छा विकास और विनाश दोनों का आधार है।

वैसे तो, इच्छाएं (एषणाएं) अनन्त हैं, उनकी कोई सीमा नहीं है, किन्तु उनमें तीन इच्छाएं सबसे प्रबल हैं-
1- वित्तैषणा (धन-सम्पत्ति की चाह),
2- पुत्रैषणा (पुत्र की चाह) और
3- लोकैषणा (सामाजिक प्रतिष्ठा और यश की चाह)।

आज का मनुष्य धन-सम्पत्ति एवं सुख-सुविधाओं के विभिन्न साधन एकत्र करने के पीछे अन्धा होकर दौड़ रहा है। इसके लिए प्रायः उसे उचितानुचित का भी ध्यान नहीं रहता। भ्रष्टाचार एवं कदाचार के द्वारा अति संग्रह इसी इच्छा की देन है। ऐसा करने से समाज में असन्तुलन उत्पन्न हो रहा है। इससे दूसरों की आवश्यकताएं पूरी नहीं होतीं। जब कुछेक ही व्यक्ति सब बटोरकर रख लेंगे, तो बाकी लोग कैसे जीवनयापन करेंगे? आज जो लूटपाट, चोरी-डकैती, अपहरण एवं हत्याओं की घटनाएं बढ़ रही हैं, उनके पीछे लोगों की यही संग्रहवृत्ति उत्तरदायी है। इसीलिए शास्त्रीय विधान है कि आवश्यकतानुसार ही अपने पास रखो और शेष समाजसेवा में लगाओ। जिनके पास नहीं है, उनके बीच बांटो। तभी शान्ति से रह सकोगे और समाज में तभी व्यवस्था और शान्ति बनी रह सकेगी।

पुत्रप्राप्ति की चाह में भी कम-ओ-बेश यही हाल है। इसके लिए घरों में या तो पुत्रियों की लाईन लगी जा रही है, या फिर मादा भ्रूणहत्याएं हो रही हैं। किन्तु, मनुष्य को पुत्र चाहिए अवश्य ही! यह भी एक पागलपन ही है। पुत्र की इच्छा प्रायः दो कारणों से होती है। पहला यह कि मरणोपरान्त वह मुखाग्नि देगा, तो मुक्ति होजाएगी। यह एक बहुत बड़ा भ्रम है। वास्तव में, मुक्ति अपने द्वारा किये गए सत्कर्मों के फलस्वरूप होती है, न कि पुत्र के मुखाग्नि देने से। स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द तथा स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि महापुरुषों ने बिना पुत्रप्राप्ति के मुक्ति पाई है। इसलिए, पुत्र की इच्छा छोड़कर अपने जीवन में अधिक से अधिक सत्कर्म करें। दूसरा कारण है कि पुत्र से वंश चलता है। इस सम्बन्ध में विचारणीय है कि यहां पर कौन किसके वंश को चला रहा है? शायद ही किसी व्यक्ति को अपने दादा के दादा का नाम ज्ञात हो? वास्तव में, हम सब मानवता का वंश चला रहे हैं। इसलिए अधिक से अधिक श्रेष्ठ मानव बनने का प्रयास करें तथा पुत्र-पुत्री के भेद को समाप्त करें।

जिस समय किसी हद तक ये दोनों इच्छाएं पूर्ण होजाती हैं, तो अन्त में मनुष्य चाहता है कि समाज में उसका नाम हो, यश फैले। इसके पीछे परेशान होने वालों को ज्ञात होना चाहिए कि यह दुनिया बड़ी विशाल है। यहां हर क्षेत्र के एक से बढ़कर एक महान् लोग पड़े हुए हैं, जिनमें उनकी कोई गिनती नहीं है। तब वे अपने आसपड़ोस में विशेष बनकर आखिर क्या दिखाना चाहते हैं?

अनुभव बताता है कि एक इच्छा पूरी होते ही, तत्काल दूसरी सामने खड़ी नज़र आती है। मसलन, पैदल चलने वाले व्यक्ति की इच्छा होती है कि साईकिल होनी चाहिए। किसी प्रकार से जब साईकिल का जुगाड़ होजाता है, तो स्कूटर या मोटरसाईकिल की इच्छा होती है। और, वह भी पूरी होजाने पर दिमाग में कार घूमने लगती है। इस प्रकार, यह सिलसिला अनन्त है।

जब कोई इच्छा पूरी नहीं होती, तो व्यक्ति दुःखी होता है। इसीलिए कहा गया है कि समस्त दुःखों की जड़ इच्छा ही है। अतः सन्तोष धारण करने का उपदेश दिया जाता है। ऐसे में विचारणीय है कि यदि हर कोई व्यक्ति सन्तोष धारण कर ले और हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाए, तो क्या मानव सभ्यता का आगे विकास बाधित नहीं होगा?
एक मत के अनुसार, अपूर्ण इच्छाओं के कारण जीव सांसारिक बन्धन में बंधा रहता है और उसे बार-बार जन्म लेना पड़ता है। इच्छा समस्त बंधन का कारण है। इसीलिए हमारे शास्त्रों में इच्छाओं के दमन की आवश्यकता पर बल दिया गया है। किन्तु, यह निवृत्ति मार्ग है और मात्र साधु-संन्यासियों के लिए उपयुक्त है, जिनका घर-गृहस्थी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। उन्होंने भौतिक विकास का अपना द्वार सदा-सर्वदा के लिए बन्द कर लिया है और वे मात्र आध्यात्मिक विकास में दत्तचित्त हैं।

इच्छाओं का दमन प्रवृत्ति मार्ग वालों (गृहस्थों) के लिए बिल्कुल भी ग्राह्य नहीं है, क्योंकि उन्हें अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियां पूरी करनी हैं। उन्हें इच्छादमन की नहीं, बल्कि इच्छाप्रबंधन की ज़रूरत है। इसमें उन्हें अपने जीवन की प्राथमिकताएं निर्धारित करनी पड़ती हैं।

इच्छाओं का जन्म प्रायः आवश्यकताएं पूरी होने के बाद होता है। हम जानते हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान जीवन की तीन मूल आवश्यकताएं हैं। इनके पूरी होने के बाद, बारी आती है स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्यरक्षा एवं शिक्षा की। जब इनकी पूर्ति होजाती है, तो मनुष्य को मनोरंजन और तरह-तरह की सुख-सुविधाएं चाहिए तथा वह अपने जीवनस्तर को ऊंचा उठाना चाहता है।

अब उसे रूखी-सूखी रोटी के स्थान पर घीचुपड़ी रोटी, पकवान और छत्तीस प्रकार के सुस्वादु व्यंजन चाहिए, नित बदलते नए फैशन के विभिन्न परिधान चाहिए तथा आधुनिक सुविधाओं से युक्त आकर्षक बंगलो चाहिए। साथ ही कहीं पर भी जाने-आने के लिए मोटरबाइक और कार चाहिए।

आपने प्रायः देखा होगा कि पैसे वाले लोग अपने अच्छे खासे बढ़िया मकान को तुड़वाकर उसे बंगलो का स्वरूप देते हैं, जब कि उसी समाज में अधिसंख्य लोग एक छप्पर डालने के लिए थोड़े से स्थान को तरसते हैं। कुछ लोग सामान्य कार को बेचकर लग्जरी कार खरीदते हैं और कोई-कोई तो जरूरत न होने पर भी कार खरीदकर गैराज में खड़ी कर देते हैं, क्योंकि वह प्रतिष्ठा का प्रतीक है। यह सब इच्छाओं का ही खेल है।

पैसे वाले लोग तो ऐसी मूर्खता करते ही हैं, किन्तु हंसी तो तब आती है, जब अपने पड़ोसी की देखादेखी धनाभाव में भी कुछ लोग टीवी, फ्रिज और वाशिंग मशीन आदि उधार में या किस्तों पर उठा लाते हैं। उनकी किस्तों की हर महीने की कुल राशि इतनी होजाती है कि उनकी पूरी मासिक आय उन्हें अदा करने में ही चली जाती है और उन्हें खाने-पीने के लाले पड़ जाते हैं। इच्छाएं कभी-कभी इन्सान को इतना गिरा देती हैं कि उनकी पूर्ति के लिए वे चोरी और हत्याएं तक भी करने से नहीं चूकते।

इसलिए, बुद्धिमानी इसी में है कि जितनी चादर हो, हम उतने ही पैर पसारें। उधार या किस्तों पर सामान लेकर इच्छाओं की पूर्ति बिल्कुल न करें, अन्यथा हम दुःखी ही रहेंगे।

अपने जीवन में हमेशा इच्छाओं का प्रबन्धन करना चाहिए। किन्तु, ऐसा करते समय समस्या तब विकट होती है, जब हमारी इच्छाएं हमें अपनी जरूरत लगने लगती हैं। इस स्थिति से निपटने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि सबसे पहले उन चीज़ों पर ध्यान दें, जो हमारे अस्तित्व एवं कल्याण को सुनिश्चित करती हैं। इसके साथ-साथ हमारा ध्यान सदैव अपनी आर्थिक क्षमता पर होना चाहिए। आधुनिक भौतिकवादी मनुष्य को फल तो चाहिए सर्वोत्कृष्ट, अर्थात् उसे चूमना तो है आकाश, किन्तु उसमें एक फुट भी उछलने की शक्ति नहीं है। और, यही उसके दुःख का मुख्य कारण है।

यह मनुष्य की सहज वृत्ति है कि वह अधिक से अधिक चीज़ों पर अपना आधिपत्य रखना चाहता है, भले ही उसे उनकी जरूरत हो या न हो। और, इस मानसिकता के कारण वह दुःख पाता है। इसी तथ्य को लक्ष्य करके एक शायर ने भगवान् से प्रार्थना की है--
मेरी औकात से बढ़कर मुझे कुछ न देना, मेरे मालिक!
क्योंकि ज़रूरत से ज्यादा रोशनी भी इन्सान को अन्धा बना देती है।
इस विषय में हमारे शास्त्र क्या कहते हैं, देखिये--
यावद् भ्रियेत जठरं तावत् स्वत्वं हि देहिनाम्।
अधिकं योऽभिमन्येत स स्तेनो दण्डमर्हति।।
(श्रीमद्भागवत् 7/14/8)
अर्थात् मनुष्यों का अधिकार केवल उतने धन पर है, जितने से उनकी भूख मिट जाय। इससे अधिक सम्पत्ति को जो अपनी मानता है, वह चोर है और उसे दण्ड मिलना चाहिए। यदि इस दृष्टि से देखें, तो समाज में अभावग्रस्त लोगों के अलावा लगभग सभी चोर हैं।

गर्मियों के दिनों में एक प्यासे हिरन को रेगिस्तान में जल दिखाई देने का भ्रम होता है और वह उसे पीने के लिए उसकी ओर दौड़ता है। वह जितना उसके पास जाता है, उतना ही वह जल और आगे जाता प्रतीत होता है। इस प्रकार, इस मृगमरीचिका के पीछे दौड़ते-दौड़ते अन्ततः उस हिरन का प्राणान्त होजाता है। आज का मनुष्य भी ठीक इसी प्रकार सुख की खोज में भौतिक पदार्थों के पीछे पागलों की तरह दौड़ रहा है। उसे न दिन में चैन है, न रात में आराम, यहां तक कि वह समय पर खाना-पीना तक भूल गया है। जितनी अधिक भौतिक सम्पदा वह अर्जित करता है, उसके लिए उतनी ही उसकी पिपासा और बढ़ती जाती है। और, जीवनपर्यन्त ऐसा करते-करते एक दिन वह मृत्यु का ग्रास बन जाता है।

वस्तुतः, भौतिक पदार्थ सभी परिवर्तनशील हैं और उनमें कोई स्थायी सुख नहीं है। अनन्त सुखराशि तो केवल हमारी अजर-अमर-अविनाशी आत्मा है। इसीलिए, बाह्य जगत् से ध्यान हटाकर हमें आत्माभिमुख होना चाहिए। तभी हमें चिरस्थायी सुख की प्राप्ति होगी।

अज्ञानतावश मनुष्य परिवर्तनशील भौतिक पदार्थों के मोहजाल में फंस गया है। अपनी अजर-अमर-अविनाशी आत्मा को वह बिल्कुल भूल गया है और इस नश्वर शरीर को ही अपना समझ बैठा है। वास्तव में, वह कौन है? यह जानने की इच्छा उसे कभी नहीं होती, जब कि यह उसकी सबसे प्राथमिक आवश्यकता है। अपने आपको जानना और माता आदिशक्ति जगज्जननी जगदम्बा से एकाकार करना उसके जीवन का चरमलक्ष्य होना चाहिए।

जिस दिन मनुष्य स्वयं को जान जाएगा, उस दिन उसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त होजाएगा। उससे आगे उसे न तो और कुछ जानने की आवश्यकता होगी और न ही इच्छा। उसकी समस्त इच्छाएं पूर्ण होजाएंगी और उसे सारे भौतिक पदार्थ थोथे नज़र आएंगे।

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