• मेरी आध्यात्मिक यात्रा My spiritual life
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
अपने परम आराध्य सद्गुरुदेव व माता आदिशक्ति जगत् जननी भगवती माँ दुर्गा जी के पावन चरणकमलों में साष्टांग प्रणाम करता हुआ मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि जो भी मन के भाव मेरे मन में लहरों की तरह हिलोरें ले रहे हैं, उन्हें लेखनी के माध्यम से कागज पर उतार सकूँ, जिससे जो भी पाठक या माँ का भक्त इन शब्दों को पढे, वह उन्हें पूर्णरूपेण हृदय पटल पर अंकित कर सके।
यह पुस्तक उन प्रश्नों का परिणाम है, जो बचपन से ही मेरे मानस पटल पर उभरते व मिटते रहे, परन्तु उनका उत्तर देने वाला कोई भी योगी, साधक, तांत्रिक, मांत्रिक, मठाधीश या धर्माचार्य नहीं मिला, जिससे मैं संतुष्ट हो सकता।
प्रश्न थे- यह ब्रह्माण्ड क्या है ? इसे किसने बनाया है ? इसके पार क्या है ? हम सब की मूल जननी कौन है। ? यह प्रकृति का चक्र जो अहर्निश चलता रहता है, क्या है ? क्यों चल रहा हैं ? अपने हिन्दू शास्त्रों में अनेकों अवतारों का वर्णन मिलता है, जैसे-मत्स्यावतार, कच्छपावतार, वाराहावतार, नृसिंहावतार, वामनावतार, परशुरामावतार, रामावतार, कृष्णावतार, बुद्धावतार, कल्कि-अवतार इनमें सबसे बड़ा कौन है ? अगर ये सब अवतार हैं, तो वह कौन है, जिसके ये सब अवतार हैं ? जब भगवान् श्रीराम व भगवान् श्रीकृष्ण ने अवतार लिया था, तो हम कहाँ थे ? क्या उनके युग में भी हम थे ? क्या हमने कभी उन्हें देखा है ? क्या उन युगों में हमें उनके नजदीक रहने का सौभाग्य मिला है ? आज इस कलियुग में भी भगवान कल्कि के अवतार लेने की जानकारी हमारे धर्म ग्रन्थों और पुराणों से मिल रही है, क्या हम उन्हें देख सकेंगे, उनके सानिध्य में अपना जीवन गुजार सकेंगे ? ऐसे ही अनेकों प्रश्न थे, पर न इनका उत्तर था और न उत्तर देने वाला। इससे मन अशान्त रहता था।
घर में पैतृक जमीन थी। उसमें भी मन नहीं लगता था। पिताजी मैकेनिकल वर्कशाप चलाते थे। उसमें भी अपना मन नहीं लगा सका, यहाँ तक की पढ़ाई में भी मन नहीं लग सका। मैं उत्तर प्रदेश के महोबा जिले का रहने वाला हूं। वहां से चित्रकूटधाम मात्र 90 कि.मी. दूर है। मेरा वहां पर सन 1982 से हर महीने जाने का क्रम था। वहां पर अनेकों साधु, संतों के पास गया, पर मन को शांति नहीं मिल सकी। कई अन्य धार्मिक स्थलों की यात्रायें की, अनेकों धार्मिक संस्थाओं में भी गया तथा अनेकों सन्तों से भी मिला। जिसने जो साधना क्रम बताये, उन्हें अपनाने की कोशिश की। कभी भगवान् श्रीराम की उपासना की, तो कभी भगवान् श्रीकृष्ण की। कुछ समय भगवान् शंकर की उपासना की और कुछ समय हनुमान चालीसा का पाठ भी किया, किसी संत ने बताया सूर्य प्रत्यक्ष देव हैं अतः कुछ समय तक सूर्य चालीसा का पाठ किया। परन्तु, मुझे इन सब क्रमों को अपनाने के बाद भी न तो मेरे प्रश्नों का उत्तर मिला और न ही मन को शान्ति मिली। इसी बीच किसी सज्जन ने बताया हरिद्वार में गायत्री परिवार के प्रमुख संस्थापक आचार्य श्री राम शर्मा जी से मिलो वे एक पहुँचे हुये सिद्ध पुरुष हैं। मैं उनकी बात सुनकर सन 1985 में हरिद्वार की यात्रा पर निकल पड़ा, हरिद्वार में गायत्री परिवार के मुख्यालय शान्तिकुंज पहुँचा, परन्तु वहाँ के साधकों से यह पता चला की आचार्य श्री राम शर्मा जी एक वर्ष तक अपनी साधनाओं में रहने के लिये अज्ञातवास में रहेंगे। ऐसा सुनकर मैं वहाँ से वापस घर आ गया।
कुछ समय बाद परिवार की सलाह से टेलीविजन और कम्प्यूटर रिपेयर कोर्स सीखने के लिए झांसी गया। वहां पर जोधपुर (राजस्थान) से प्रकाशित मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका पढ़ने को मिली। उसमें अनेकों साधनाओं व सिद्धियों का वर्णन था तथा इन्हीं से सम्बन्धित शिविरों का भी वर्णन था, जो जोधपुर में ही लगते थे। इस पत्रिका के लेखक डॉ0 नारायणदत्त श्रीमाली जी थे। सोचा शायद वहाँ से मेरे प्रश्नों का उत्तर मिल जाय। इसी आशा से मैं सन 1986 में जोधपुर गया एवं पूज्य श्रीमाली जी से गुरुदीक्षा भी ली। उनके सानिध्य में अपने जीवन के कुछ वर्ष भी बिताये। परन्तु, वहाँ भी मेरे प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल सके, जबकि मैंने पूर्ण निष्ठा एवं भावना के साथ उनकी सेवा की तथा समर्पण के साथ रहा, वहाँ से भी निराशा ही मिली, हाँ वहाँ एक बात जरूर हुई कि जब मैं वहाँ पर रह रहा था तो उसी समय एक दिव्य पुरुष सफेद वस्त्रों में वहाँ आये। मैं उनसे बहुत प्रभावित हुआ। उन्होंने श्रीमाली जी के सामने कोई बात रखी, परन्तु उन्होंने उसे मानने से इन्कार कर दिया। एक निश्चित अवधि तक वे वहाँ रहे। फिर वहाँ से चले गये, परन्तु वे अपना पता मुझे अवश्य दे गये। मैंने पता तो ले लिया परन्तु कोई निर्णय न ले सका। मैं श्री माली जी के साथ रहते हुये उनके द्वारा आयोजित अनेकों साधनात्मक शिविरों में भाग लिया, अनेकों साधनायें करते लोगों को देखा परन्तु ऐसे किसी भी साधक को नहीं देख सका, जिन्हें कोई भी साधना पूर्णरूपेण सिद्ध हुई हो। वहां से निराश होकर देश की अनेक धार्मिक संस्थाओं में भी गया। उन संस्थाओं से धार्मिक भावना के लाखो व्यक्ति जुड़े थे, उन संस्थाओं में कहीं पर मैं पांच दिन तो कही पर पंद्रह दिन रहा परन्तु जिस प्रकार उन संस्थाओं में धर्म के नाम पर ठगाई चल रही थी व इसके अलावा उन धार्मिक संस्थाओं में वह भी देखने को मिला जिसके विषय में मै सोच भी नही सकता था।
मैं किसी भी धार्मिक संस्था की बुराई नही करना चाहता हूं परन्तु ऐसी संस्थाओं से देश व समाज का कल्याण हो सकेगा यह भी सुनिश्चित नही कर पा रहा था। इसी उहापोह के साथवापस घर आ गया। परन्तु, वह पता मेरे पास अब भी मौजूद था। उसी पर सम्पर्क किया। जवाब आया, ‘‘मेरा छठवाँ महाशक्तियज्ञ म.प्र. में हो रहा है। उसमें आकर तुरन्त सम्मिलित हो। तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर मिल जायेगा। ’’पत्र पढ़ते ही अगले दिन मैं म.प्र. के लिए रवाना हो गया। मैं दिनांक 21-10-1993 को रात्रि 12.00 बजे यज्ञस्थल पर पहुँचा। उस समय सभी कार्यकर्ता सो रहे थे परन्त वे सिद्ध मानव पीली धोती पहने दरवाजे पर खड़े जैसे मेरा ही इन्तजार कर रहे थे। मुझे देखते ही उनके मुख से निकला ‘‘आओ चौहान, मैं तुम्हारा ही इन्तजार कर रहा था रास्ते में कोई परेशानी तो नहीं हुई ?’’ मैं यंत्रचालित सा उनके चरणों में झुक गया। उन्होंने आशीर्वाद दिया और मुझे अन्दर ले गये एवं वहाँ उपस्थित प्रमुख कार्यकर्ताओं को जगाकर मेरा परिचय कराया तथा मेरे विश्राम की व्यवस्था करके अपने शयन कक्ष में चले गये।
यज्ञ सुबह से पुनः प्रारम्भ हुआ। उसमें कोई पंडित या यजमान नहीं था, अपितु वे ही महापुरुष स्वयं ही मंत्रपाठ करते हुये यज्ञ में आहुति दे रहे थे। यज्ञ 7 घण्टे लगातार चला। अग्नि पूर्णतया प्रज्वलित थी। यज्ञवेदी के सामने माँ की 6 फुट ऊंची पूर्ण चैतन्य प्रतिमा स्थापित थी। वे पूर्णतः एकाग्रचित्त होकर यज्ञ सम्पन्न कर रहे थे। यज्ञाहुति के बीच में न तो वे आसन से उठे, न ही पानी पिया, न ही किसी से कुछ बोले। यज्ञ सम्पन्न करने के बाद वे अंतिम पूजन करके अपने ध्यान कक्ष में चले गये।
यज्ञ की अवधि में एक चमत्कार देखने को मिला। हाल के बीचोबीच कपड़े का एक पर्दा लगा था, जिससे हाल दो भागों में विभक्त हो गया था। एक भाग में माँ की पूर्ण चैतन्य प्रतिमा, यज्ञवेदी एवं योगीराज जी का आसन था। दूसरी तरफ समाज के सभी वर्गों के माँ के भक्तों के बैठने व मंत्र जप करने की व्यवस्था थी। जब मैं भक्तों के पास बैठा घंटों मंत्र जाप करता रहा, तो किसी भी तरह की नींद या आलस्य नहीं आया। और, जब पर्दे के दूसरी तरफ तीस मिनट बैठकर मंत्रजाप किया, तो आलस्य और नींद तुरंत सताने लगी। मैंने स्पष्ट एहसास किया कि इस साधनात्मक महाशक्तियज्ञ में एक विशेष प्रकार की माता भगवती की ऊर्जा यज्ञ स्थल के दायरे में यज्ञ समय पर रहती है। यह भी स्पष्ट एहसास हुआ कि माँ भगवती की सूक्ष्म उपस्थिति यज्ञ समय पर जरूर रहती है।
इसके पहले अनेंकों यज्ञों में मुझे भाग लेने का मौका मिला था, परन्तु इस तरह की चमत्कारी ऊर्जा का एहसास जीवन में पहली बार ही हुआ। खैर, यज्ञ ग्यारह दिनों तक चलता रहा और अनेकों चमत्कारिक घटनायें होती रही। यज्ञ पूर्ण होने पर पूर्णाहुति हुई वह भी अलौकिक क्रमों से परिपूर्ण थी। इसके बाद शाम को योगीराज जी का प्रवचन हुआ। उसमें उन्होंने अपने बारे में विस्तार से स्पष्ट किया कि अगर मुझे जानना-पहचानना चाहते हो, मेरे यज्ञों की विराट्ता को जानना चाहते हो, तो देश-विदेश के अनेकों भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों को पढो। उनमें मेरा पूर्ण परिचय मिल जायेगा।मैं कौन हूँ ? क्या हूँ ? मेरा जन्म कब होगा ? मेरे कार्य क्या होंगे ? मेरा नाम, मेरे पिता का नाम, मेरे जन्म का गांव, प्रांत, कार्यक्षेत्र, सब उनकी भविष्यवाणियों में अंकित पड़ा हुआ है। आवश्यकता है उनकी भविष्यवाणियों को गहराई से पढ़ने व समझने की।
मैंने सुना, तो चौका कि ये क्या कह रहे हैं, मेरे मन में खलबली मच गई। दिमाग में तुरंत प्रश्न कौंधा, तो क्या यही इस युग के ’’अवतारी पुरुष’’ हैं ? जो विवरण कल्किपुराण में कल्कि अवतार का मिलता है, क्या यही वह अवतार हैं ? यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार उठने लगा, उन्होंने आगे कहा, उन देशी व विदेशी भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियाँ अगर किसी दूसरे धर्माचार्यों या मठाधीशों से मिलान करके देखोगे, तो 25 प्रतिशत भी मिलान नहीं करेंगी और अगर इस शरीर से करोगे, तो 100 प्रतिशत मिलान करेंगी। क्योंकि जो भी भविष्यवाणियां लिखी गयी हैं, वह मेरे सम्बन्ध में ही लिखी गयी हैं। मैं ही वह ‘‘युग चेतना पुरुष हूँ।‘‘ बस इतने ही शब्द सुनना था कि मेरे मन में खलबली सी मच गयी, मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ कि यह दिव्य मानव इस युग के ’’अवतार’’ होंगें। मैं एक टक देखता ही रह गया परन्तु मैंने तो अनेकों चमत्कारपूर्ण घटनायें इस यज्ञ में देखी थी। इसलिए मुझे तो पूरा विश्वास हो गया था कि निश्चय ही ये अवतारी पुरुष हैं। परन्तु, अगर समाज से यह बात कही जाय, तो वह किसी भी तरह विश्वास नहीं करेगा, क्योंकि आज वैज्ञानिक युग है, हर बात प्रमाणों के तराजू पर तौली जाती है।
इन सभी घटनाओं से मेरे मन में उठने वाली जिज्ञासायें तो समाप्त हो गयीं, लेकिन एक अभिलाषा अवश्य जागृत हुई कि जिस सत्य का ज्ञान मुझे हुआ है उससे सम्बन्धित पूर्ण प्रमाण समाज के सामने रखकर पूरे समाज को इस युगपुरुष के चरणों में झुकने के लिए बाध्य कर दूँ, जिससे मेरे साथ ही समाज का भी कल्याण हो सके। यह कार्य इतना आसान नहीं था, परन्तु असम्भव भी नहीं था, जिसे संभव न कर सकूँ।
उनका शेष प्रवचन इसी उधेड़बुन में निकल गया। इसके आगे मालूम नहीं और उन्होंने क्या कहा। महाशक्तियज्ञ पूर्ण होने के बाद अगले दिन माँ जगत् जननी की विर्सजन यात्रा बडे़ धूमधाम से निकली। जिसकी चर्चा नगर के समस्त बच्चों, बूढों की जबान पर थी कि ऐसी माँ की विर्सजन यात्रा उन्होंने जीवन में कभी नहीं देखी, पूरा शहर नाच उठा था। यह विसर्जन यात्रा भी अनेकों दैवी चमत्कारों से परिपूर्ण थी। इससे विश्वास और गहरा गया।
अगले दिन गुरुदीक्षा का कार्यक्रम था। मेरे अंदर एक अजीब उथल-पुथल मची हुई थी। वह अन्तर्मन की व्यथा मैंने पूज्य योगीराज जी के चरणों में व्यक्त की। उन्होंने मेरे अन्दर चल रही सारी उथल-पुथल को समाप्त करके नई आध्यात्मिक यात्रा में चलने के लिए गुरुदीक्षा हेतु आज्ञा प्रदान किया। मेरा सारा शरीर पुलकित हो उठा और मैं भी गुरुदीक्षा लेने वालों की लाइन में बैठ गया। मेरी आँखों से बराबर आंसू निकल रहे थे जिन्हें रोकना मेरे बस में नहीं था। गुरुदीक्षा का समय आया। मेरा भी गुरुदीक्षा संस्कार सम्पन्न हुआ। ज्ञात हो कि परमपूज्य परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने इसी छठवें महाशक्ति यज्ञ की पूर्णाहुति के दिन आदिशक्ति जगत् जननी जगदम्बा जी से संन्यास दीक्षा ग्रहण की थी और इसके बाद योगीराज जी का अपने भक्तों को गुरुदीक्षा प्रदान करने का यह पहला साधनात्मक क्रम था। इसमें उन्होंने गुरुदीक्षा के रूप में पहला सौभाग्य मुझे ही प्रदान किया। मैंने उन्हें पूर्ण निष्ठा एवं समर्पण के साथ गुरु रूप में स्वीकार किया। इसके बाद मैं उन प्रमाणों की खोज में निकल पड़ा, जिनके लिए उन्होंने मुझे संकेत किया था।
तभी से मैंने देश-विदेश के अनेकों प्रसिद्ध भविष्यवक्ताओं की भविष्यवाणियों से संबंधित पुस्तकों को अच्छी तरह से पढ़ा। और उन्हें पढ़कर मुझे तो पूर्ण विश्वास हो गया, लेकिन समस्या यह थी कि इस समाज को इतनी सारी पुस्तकों को पढ़वाना व उनका अर्थ बताना कठिन कार्य था। इसी लिए उन पुस्तकों की प्रामाणिक भविष्यवाणियां संकलित करके पुस्तक का रूप देने की इच्छा जागृत हुयी। जिससे पूरा समाज इस पुस्तक को पढ़कर अपने आप को संतुष्ट कर सके।