• हमारी संस्कृति की त्रासदी (Disaster of our Culture)
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हमारी संस्कृति की त्रासदी (Disaster of our Culture)
किसी भी राष्ट्र, जाति अथवा समुदाय की पहचान उसकी संस्कृति से होती है। किन्तु, हम अपनी संस्कृति लगातार खोते जा रहे हैं। हम क्या थे, क्या हो गए और क्या होने जा रहे हैं?भारतवर्ष में ब्रिटिश शासन के स्थापक, लॉर्ड मैक्कॉले के 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में दिये गए वक्तव्य का अंशः
‘‘मैंने भारतवर्ष की एक सिरे से दूसरे तक यात्रा की है तथा वहां पर मैंने न तो कोई भिखारी देखा है और न कोई चोर! इस देश में मैंने ऐसी सम्पदा, ऐसे उच्च नैतिक मूल्य, ऐसे चरित्र के लोग देखे हैं कि मैं नहीं समझता हम कभी इस देश को अपने अधीन कर पायेंगे, जब तक कि हम इस राष्ट्र की रीढ़ को ही नहीं तोड़ देते, जो इसकी आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक विरासत है। हम उसकी प्राचीन व्यवस्था और उसकी संस्कृति को बदलेंगे, जिससे वे अपने स्वाभिमान एवं जन्मजात एकरूप संस्कृति को खो देंगे तथा वे ऐसे हो जाएंगे, जैसा हम चाहते हैं, अर्थात् सचमुच एक शासित राष्ट्र।’’
यह एक निर्विवाद तथ्य है कि ब्रिटिश लोग हमारे प्राचीन राष्ट्र का चरित्रबल भंग करने के अपने नापाक मिशन में सफल हो गए।
लॉर्ड मैक्कॉले के उपर्युक्त वक्तव्य से दो बातें स्पष्ट होती हैं- प्रथम, ब्रिटिश लोग बहुत चतुर-चालाक थे! वे भलीभांति जानते थे कि यदि किसी देश को गुलाम बनाना हो, तो उसकी संस्कृति को मिटा दो। और, उन्होंने ऐसा ही किया भी। द्वितीय, तब हमारी सांस्कृतिक विरासत बहुत समृद्ध थी। उस समय हमारे देश में चोर और भिखारी का नाम तक नहीं था तथा हमारे नैतिक मूल्य बहुत ऊँचे थे। उसके पहले, सैकड़ों साल तक हमारे यहाँ मुगलों का शासन भी रहा था। मुगलकाल से पहले हमारी संस्कृति कितनी उत्कृष्ट रही होगी, यह केवल अनुमान का विषय है।
इस प्रसंग में, उर्दू शायर डॉ. मोहम्मद इकबाल के लोकप्रिय गीत ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमारा’ की ये पंक्तियां याद आती हैंः
यूनान मिस्त्र रोमां, सब मिट गए जहां से।
अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा।। सारे जहाँ से अच्छा...
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-ज़मां हमारा।।
सारे जहाँ से अच्छा...
अर्थात् प्राचीन संस्कृति वाले यूनान, मिस्र और रोम देश दुनिया से मिट गए हैं, किन्तु हमारा नाम व निशान अब तक भी बाकी है। कोई विशेष बात है कि हमारा अस्तित्व मिटता नहीं है, यद्यपि युग का चक्र शताब्दियों तक हमारा शत्रु रहा है।
प्रश्न उठता है कि वह विशेष बात क्या है? स्पष्टतया वह हमारी संस्कृति ही है, जिसके कारण हमारा अस्तित्व सदैव अक्षुण्ण बना रहा है।
संस्कृति क्या है?
प्रत्येक राष्ट्र, समाज और परिवार की कुछ व्यवहारगत विशेषताएं होती हैं, जो उनके व्यवहार में स्वतः परिलक्षित होती हैं। इन आचरणगत परम्पराओं को ही संस्कृति की संज्ञा दी गई है। किन्तु, व्यक्ति का आचरण सदैव उसके विचारों के अनुरूप होता है और विचार बनते हैं मन पर पड़े हुये संस्कारों से। इस प्रकार संस्कृति संस्कारों का ही व्यक्त रूप है।कुछ संस्कार तो हम पूर्वजन्म से अपने साथ लाते हैं तथा कुछ हमें उस परिवेश से मिलते हैं, जिसमें हम रह रहे होते हैं। बचपन से ही जैसा आचरण हम अपने बड़ों को करते हुये देखते हैं, उसकी छाप हमारे मन पर पड़ती जाती है और वैसी परिस्थिति में हम भी स्वतः वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं। इसके अतिरिक्त, हमें मिली शिक्षा से भी हमारे संस्कारों का निर्माण होता है। और, कुल मिलाकर इस प्रकार के समस्त संस्कारों से ही हमारी संस्कृति अस्तित्व में आती है।
इसीलिए, कहा गया है कि माता-पिता को अपने बच्चों के लिए ‘रोल मॉडल’ (अनुकरणीय व्यक्ति) बनना चाहिये। शिक्षकों और धर्मगुरुओं को भी समाज के सामने आदर्श प्रस्तुत करना चाहिये। किन्तु, आजकल प्रायः सभी माता-पिता, शिक्षक और धर्मगुरु सन्मार्ग से भटके हुये हैं। यही कारण है कि पूरा समाज भटक रहा है और पतन के मार्ग पर जा रहा है।
हम क्या थे और अब?
आदिकाल से ही हमारी संस्कृति त्यागप्रधान रही है। सादगी, सन्तोष, निष्कपटता, सदाचार, परोपकारिता, सहनशीलता, न्यायप्रियता, सात्त्विकता, निःस्वार्थता, संवेदनशीलता, सहायकारिता, अतिथिसत्कार, क्षमाशीलता तथा निरहंकारिता आदि उदात्त मूल्य हमारे जीवन के अनिवार्य अंग रहे हैं।अंग्रेजों ने सर्वप्रथम हमारी शिक्षा को बदला, फिर वेशभूषा को और खानपान को बदला। हिन्दी और संस्कृत के स्थान पर उन्होंने उर्दू और अंग्रेजी को प्रवर्तित किया। गुरुकुलों के स्थान पर बोर्डिंग स्कूल खोले। अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वालों को उन्होंने प्राथमिकता दी। धोती-कुर्ता-टोपी के स्थान पर पैण्ट-कोट-टाई और हैट आए। आहार में अण्डा, मांस, मछली, चाय, कॉफी, मदिरा, सिगार और सिगरेट खिलाए-पिलाए जाने लगे और इन सबका सेवन करने वालों को प्रगतिशील समझा गया।
सरकारी नौकरी उन लोगों को दी गई, जो उर्दू व अंग्रेजी पढ़े थे। इससे मातृभाषा हिन्दी व संस्कृत के प्रति लोगों के मन में हीन भावना व अरुचि उत्पन्न होना स्वाभाविक था।
उस समय विभिन्न विभागों में अधिकारी अंग्रेज और कर्मचारी हिन्दुस्तानी हुआ करते थे। अधिकारी को ‘साहब’ और कर्मचारी को ‘बाबू’ कहने का चलन अंग्रेजों ने ही शुरू किया था, जो आज भी जारी है। गोरे अंग्रेज तो चले गए, किन्तु अपने स्थान पर वे काले अंग्रेजों को छोड़ गए हैं।
इस प्रकार, हमारा नैतिक स्तर गिरा और परस्पर भेदभाव बढ़ा। किसी भारतीय ने अंग्रेजों के मनमुताबिक यदि कोई कार्य कर दिया, तो उन्होंने खुश होकर उसे कई-कई गांवों का मालिक बना दिया और उसे ‘रायबहादुर’ तथा ‘सर’ जैसी उपाधियों से नवाजा गया। छुटपुट कामों के लिए ‘बख्शीश’ देने का रिवाज उन्हीं के द्वारा शुरू किया गया था। इससे आम जनता का मनोबल तोड़ा गया। आजादी मिलने के बाद आशा बलवती हुई थी कि हमारी मूल संस्कृति पुनः प्रतिष्ठित होगी, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। इसके विपरीत, हम पर पाश्चात्य संस्कृति लगातार हावी होती चली गई।
आज जिधर देखो, इंग्लिश मीडियम स्कूलों की भरमार है। हर कोई अपने बच्चों को उनमें पढ़ाना चाहता है, नहीं तो वे जीवन की दौड़ में पिछड़ जाएंगे। बिना अंग्रेजी के हम अपने आपको पंगु महसूस करते हैं। राष्ट्रीय स्तर की सेवाओं में प्रवेश के लिए अंग्रेजी का होना नितान्त अनिवार्य है। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए, भले ही वह विज्ञान की हो, मेडिकल की, इन्जीनियरिंग की हो या किसी और विषय की, बिना अंग्रेजी के काम नहीं चलता। विदेश में शिक्षा प्राप्त करने के लिए भी अंग्रेजी चाहिये। आज हम अंग्रेजी के इतने गुलाम हो चुके हैं कि उसमें बात करके हम गौरव का अनुभव करते हैं। दक्षिण भारत में तो मातृभाषा हिन्दी के विरोध में अनेक बार तोड़फोड़ और आन्दोलन तक हो चुके हैं।
नशे और मांसाहार तथा चाय-कॉफी का सेवन स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त तीव्र गति से बढ़ा है। धोती-कुर्ता कभी हमारी पहचान हुआ करती थी, किन्तु आज उन्हें हम भूल चुके हैं। अब जीन्स और टी-शर्ट से ही हमारी शान होती है, यहां तक कि तथाकथित प्रगतिशील महिलाएं भी जीन्स और टॉप पहनने लगी हैं।
अर्थलिप्सा के कारण आज नैतिक पतन इतना हो चुका है कि हर तरफ चोर और भिखारी नजर आते हैं। कुछ इनेगिनों को छोड़कर सबसे बड़े चोर तो हमारे राजनेता हैं। उन्होंने देश को लूटकर विदेशी बैंकों में धन जमा कर रखा है। यही हाल धर्मगुरुओं का है, जो सबसे बड़े भिखारी हैं। दान के पैसे पर उनका पेट पलता है। वे स्वतः स्वयं को ‘इण्टरनेशनल भिखारी’ कहते हैं। जनता के दुःख-दर्द से इन दोनों वर्गों का कोई सरोकार नहीं है। वे तो बस येन-केन-प्रकारेण अपना वैभव बढ़ाने में लगे रहते हैं।
आज हिंसा, अनाचार, दुराचार, व्यभिचार और झूठ-कपट सामान्य बातें हो गई हैं। इन सबके पीछे टेलीविजन की भूमिका कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं रही है। इसके माध्यम से हमारी संस्कृति पर आकाशमार्ग से सांस्कृतिक आक्रमण हो रहा है। घरेलू चैनल भी खुलेआम प्रायः हिंसा और अश्लीलता ही दिखाते हैं। फैशन टी.वी. जैसे विदेशी चैनल दिन-रात हमें नग्नता परोस रहे हैं। ये सब कभी हमारी संस्कृति के अंग नहीं रहे हैं। आजकल नवजात शिशु आंखें ही टी.वी के सामने खोलता है, यहां तक कि गर्भस्थ शिशु अपनी माँ के माध्यम से हिंसक एवं कामुक दृश्य देखता है। तब बड़े होकर इन लोगों का भटकना निश्चित है।
अब तो उन्मुक्त यौन सम्बन्ध के लिए बाकायदा कानून पास कर दिया गया है। हमारा युवावर्ग पूरी तरह भटक चुका है। एक अनुमान के अनुसार, लगभग पच्चीस प्रतिशत युवा विवाहपूर्व ही शारीरिक सम्बन्ध बना चुके होते हैं और लगभग इतने ही विवाहित लोग सुन्दर एवं स्वस्थ जीवनसाथी के रहते अन्यत्र अवैध यौन सम्बन्ध बनाए रखते हैं। ब्रह्मचर्य तथा एकपति/पत्नी व्रत अब कल्पना की बातें बनकर रह गई हैं।
संस्कृति के पतन का यह सिलसिला अभी भी थमा नहीं है। यह क्रम कहां पर जाकर रुकेगा, यह कहना कठिन है।
आज प्रायः हर व्यक्ति अशान्त है, दुःखी है और परेशान है। उसके पास सब कुछ होते हुये भी वह भारी असन्तोष एवं कुण्ठा से ग्रसित है। समाज में चारों ओर अव्यवस्था, अराजकता एवं निरंकुशता व्याप्त है। इसके लिए मूलरूप से हमारा सांस्कृतिक पतन ही जिम्मेदार है। ऐसा लगता है, मानों हम तीव्रगति से गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं। आखिर, इसे कौन रोकेगा?
हमारा कर्तव्य
इतिहास साक्षी है कि यह देवभूमि, भारत कभी भी ऋषिशून्य नहीं रही है। यहां पर हर काल में कोई न कोई ऋषि अवश्य ही विद्यमान रहे हैं, जिन्होंने पतन के मार्ग पर जाते समाज की दिशाधारा को मोड़कर उसे उत्थान की ओर उन्मुख किया है। वर्तमान काल में भी धर्मसम्राट् युग चेतना पुरुष सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज इसी ऋषि परम्परा से हैं। आपश्री ने राजनैतिक एवं धार्मिक दोनों क्षेत्रों को सुधारने तथा भारत की मूल संस्कृति की रक्षा करने का बीड़ा उठाया है। किन्तु, इसके लिए माध्यम तो हमें और आपको ही बनना पड़ेगा।परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने इस दुरूह कार्य को सम्पन्न करने के लिए भगवती मानव कल्याण संगठन का गठन किया है। यह संगठन पूर्ण नशामुक्त, मांसाहारमुक्त एवं चरित्रवान् समाज का निर्माण करने में लगा हुआ है तथा जातपात, छुआछूत एवं साम्प्रदायिकता आदि के भेदभाव को मिटाकर हर पल मानवकल्याण में तत्पर है।
इसलिए सभी जाति-धर्मों के लोगों तथा प्रशासनिक, राजनैतिक एवं बुद्धिजीवी वर्गों के साथ-साथ हमारा और आपका भी कर्तव्य बनता है कि परम पूज्य सद्गुरुदेव महाराज के द्वारा प्रारम्भ की गई युग परिवर्तन की इस यात्रा में हम भी अपने आपको जोड़ें। इस हेतु सर्वप्रथम हमें स्वयं अपने आपमें तथा अपने परिवार में सुधार लाना होगा। हम स्वयं नशा-मांसाहार से मुक्त हों और भगवती मानव कल्याण संगठन की विचारधारा को आत्मसात् करें, तभी हम दूसरों को सुधारने की बात कर सकते हैं। साथ ही, वर्तमान के युवावर्ग तथा आने वाली पीढ़ी को भी संभालना होगा तथा अपने कार्य एवं व्यवहार से उन्हें अच्छे संस्कार देने होंगे।
इसीलिए, हमें चाहिये कि भले ही हम हिन्दी, उड़िया, तमिल अथवा तेलगू कोई भी क्षेत्रीय भाषा पढ़ें, किन्तु देववाणी संस्कृत को कभी नहीं छोड़ें। ज्ञातव्य है कि उसमें जीवन मूल्यों का भण्डार भरा पड़ा है। ‘संस्कृतं बिना न संस्कृतिः’ अर्थात् संस्कृत के बिना आप संस्कृति की कल्पना भी नहीं कर सकते।
आप बिलकुल उचित बोल रहे है ,हम धीरे धीरे अपनी संस्कृति से दूर होते जा रहे है किन्तु अभी समय निकला नही है हम सबको मिलकर अपने संस्कृति को बचाना ही होगा
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