• जो हनुमत जस गुरुमय होई, Jo Hanumat Jas Gurumay Hoi
जो हनुमत जस गुरुमय होई (Jo Hanumat Jas Gurumay Hoi)
गोष्पदी कृत वारीशं
मशकीकृतराक्षसम्।
रामायण महामालारत्नं बन्देडनिलात्मजम्।।
रामायण महामालारत्नं बन्देडनिलात्मजम्।।
सिन्धु
को गोखुर के समान लांघ जाने वाले, राक्षसों
को मच्छरतुल्य मसल देने वाले, परमानन्द
श्रीमद्योध्याचन्द्र कौशल्या नन्दवर्धन
दशरथनन्दन श्री राम सुधारस मन्दाकिनी मुक्तमाला के महारत्न श्री हनुमाहन जी को
सहरत्रशः-लक्ष्यसः- कोटिशिः, इस
गुरू सेवक का प्रणाम है। पर क्यों ?
प्रणाम
इसलिए नहीं हैं कि वे बडे बलवान हैं,
अष्टसिद्धियों
के मालिक हैं, वरन् प्रणाम उन्हें इसलिए है कि वे
अपने इष्ट,
मालिक
के प्रति पूर्ण निष्ठाशील हैं श्रद्धामय नतमस्तक हैं अर्थात पूर्ण इष्ठमय हैं
उनमें भगवान राममय होने की क्रिया हैं इसलिए हम उन्हें पूर्ण श्रद्धामय प्रणाम
साष्टांग दण्डवत होकर करते हैं क्योंकि उनके द्वारा इष्टमय होने की क्रिया का
ज्ञान होता हैं।
जब
भगवान राम ने अपने परमधाम गमन के समय हनुमान जी से वरदान मांगने को कहा तो हनुमान
जी ने जो मांगा वह उनके इष्टमय होने का
पूर्ण परिचायक है।
यादव्
राम कथा वीर चरिष्यति महीतले।
तावच्छरीरे वत्स्यन्तु प्राणामम् न संशयः।।
तावच्छरीरे वत्स्यन्तु प्राणामम् न संशयः।।
यत्वैव च्चरितं दिव्यं कथा ते रघुनन्दन।
तन्ममाप्सरसो राम श्रावयेयुर्नरर्षभ।।
तन्ममाप्सरसो राम श्रावयेयुर्नरर्षभ।।
(वां
रा 7/40/17-18)
वीरवर
श्री रघुनन्दन! जब तक इस पृथ्बी पर श्री राम कथा का प्रचार रहे,
तब
तक निःसंदेह मेरे शरीर में प्राण बसे रहें। हे नर श्रेष्ठ श्री राम! आपका जो
दिव्यचरित और कथा हैं! उसे अप्सरायें गा कर मुझे सुनाया करें।
ऐसे
भाव श्री हनुमान जी में अपने इष्ट भगवान श्री रामजी के प्रति हैं। एक प्रसंग और है
कि जब भगवान श्री राम, लक्ष्मण
व सीता सहित लंका विजय कर अयोध्या वापस आते हैं और अयोध्या के राज सिंहासन पर
विराजमान होकर अनेकों सेवकों एवं भक्तों को पुस्कार विवरण करते हैं। जब हनुमान जी
बारी आती है तो उन्हें माता सीता जी अपनी
मोतियों की माला जिसे वे सदैव अपने गले में धारण किये रहती थीं,
हनुमान
जी को देती हैं साथ ही अनेको वरदान माता सीता जी की तरफ से प्राप्त होते हैं। श्री
हनुमान जी वह माला लेकर सामने ही बैठ जाते हैं और उस मोती की माला को देखते ही
देखते तोड़ देते हैं साथ ही एक-एक मनको को दांतो से दबा कर तोड़ते हैं एवं उस टूटे
हुए मनके में कुछ देखते हैं। इच्छित वस्तु
की प्राप्ति न होने पर वे उस मनके को फेंक देते हैं इसी प्रकार अनेकों मनके
देखते ही देखते श्री हनुमान जी तोडकर फेंक देते हैं। यह कौतूहल सारी राजसभा देख
रही थी परन्तु बोलने की हिम्मत किसी में नहीं हैं।
महर्षि
वशिष्ठ जी जो एक दिव्य शाक्ति सम्पन्न महापुरूष हैं वे जान लेते हैं कि भक्त
शिरोमणि श्री हनुमान जी माला को क्यों तोड़ रहे हैं। वशिष्ठ जी ने महसूस किया कि यह
राजसभा हनुमान जी के भाव को नहीं समझ पा रही हैं,
अतः
इस राजसभा को ज्ञान होना आवश्यक है कि हनुमान जी माला को क्यो तोड़ रहे हैं।।
उन्होने सोचा कि शायद मेरे द्वारा यह
रहस्य स्पष्ट करने पर राजसभा विश्वास न करे अतः वे श्री हनुमान जी को टोंक देतें
है कि हे महाबली हनुमान जी आप इतनी अच्छी मोतियो की माला के मनकों को तोड़-तोड़ कर
क्या देख रहे हैं ? कृपया
हमें भी बतायें। वानरों में श्रेष्ठ महासेवक श्री हनुमान जी जवाब देते हैं कि जिस
वस्तु या जगह में मेरे इष्ट का वास न हो तो वह वस्तु चाहे कितनी ही अमूल्य क्यों न
हो मेरे लिए बेकार हैं। यह बात सुनकर सारी सभा हंस पड़ती है। महर्षि वशिष्ठ जी फिर अपनी
बात दोहराते है तो क्या भक्त हनुमान जी तुम्हारे शरीर में तुम्हारे इष्ट का वास
हैं। अगर है तो पूरी राजसभा को इस बात का प्रमाण दो और श्री हनुमान जी उस परम्
प्रभु दीनन हितकारी भगवान श्री राम को स्मरण करते हुये अपना सीना (वक्षस्थल) अपने
ही हाथों से फाड कर उसमें भगवान श्री राम एवं जगत जननी की अंश स्वरूपा माता सीता
जी के दर्शन सारी सभा को कराते हैं। इस बात से एक कहावत चरितार्थ होती है कि कण-कण
में भगवान का वास है, विराजमान
हैं, जरूरत है उन कणों को अपने श्रद्धा
विश्वास एवं साधना से चैतन्य करने की, इससे
बड़ा और क्या प्रमाण हो सकता है श्री हनुमान जी के इष्टमय होने का। ऐसी थी श्री
हनुमान जी की अपने इष्ट के ऊपर निष्ठा, विश्वास,
उनका
रोम रोम श्वास-प्रतिश्वास राम नाम ही पुकारता था। यही कारण कि जो शाक्तियाँ भगवान
श्री राम व माता सीता के पास थीं वे स्वतः ही हनुमान जी के पास पहुँच गयी थी।
उन्होंने भगवान श्री राम की एक-एक क्रिया को अपने ऊपर ढालने की क्रिया की थी,
एक-एक
क्षण वे अपने इष्ट की आज्ञा को पूरा करने को तत्पर रहते थे। जिस प्रकार भगवान राम
की सेवा हनुमान जी ने की है उन्होंने वह उदाहरण प्रस्तुत किया है कि अगर इष्टमय होकर
अपने प्रभु या इष्ट की सेवा की जाये तो कुछ भी असभंव नहीं है। किसी भी क्षे़त्र
में अध्यात्म के द्वारा समस्त ऊंचाइयों को तय किया जा सकता हैं।
सेवा
समर्पण के बल पर ही महाबली श्री हनुमान जी राम भक्तों की श्रृंखला में सबसे प्रथम
गिने जाते हैं। जब श्री राम भक्त शब्द चिन्तन में आता तो तुरन्त महाबली का नाम आगे
जुड जाता है। यह विचारणीय चिन्तन है कि लक्ष्मण ने बचपन से राम की सेवा की,
भरत
ने राम की आराधना की पर फिर भी जो स्थान हनुमान जी को प्राप्त हुआ वह अन्य किसी को
नहीं, क्योकि श्री हनुमान जी ने अपने खुद के
अस्तित्व को मिटा कर पूर्णता से भक्ती में डूब गये थे जो अन्य नही कर सकें,
उन्होने
अपने रोम-रोम में अपने इष्ट को बसाया था।
एक
साधक अपने शरीर को तपाकर साधनाओं अनुष्ठानों में कई जीवन खोने के बाद जो ऊँचाई
प्राप्त करता है, वही
साधक अगर गुरूमय होकर गुरूसेवा साधना में गुजारे,
उससें
भी कई गुना ज्यादा एक ही जीवन में ऊँचाई प्राप्त कर सकता है। इसका उदाहरण है श्री
हनुमान जी जिन्होंने एक ही जीवन में भगवान राममय होकर भगवान राम की समस्त
सिद्धियों को अपने अन्दर समाहित किया था। जरूरत है साधक को इष्टमय या गुरूमय होने
की।
एक
बात सदैव ध्यान में रहना चाहिये कि गुरु वह माध्यम है जो साधक एवं प्रकृति या इष्ट
के बीच खड़ा है। इष्ट तक पहुँचने के लिये गुरू के अलावा कोई रास्ता नहीं है।
अर्थात् इष्ट ने ही एक रूप धर कर अपने तक पहुँचने हेतु मार्गदर्शक भेजा है। इसलिये
इष्ट या गुरू में भेद करने की जरूरत नहीं हैं क्योकि ’गुरू’
कोई
शरीरधारी को नहीं कहते हैं। वह तो उस परमसत्ता के ज्ञान का प्रवाह है जिसके माध्यम
से हमें प्रकृति सत्ता तक पहुँचने का मार्ग मिलता है,
यह
निश्चित है कि वे भी मानव के रूप में रह कर ही हमें मार्ग दिखाते हैं परन्तु उसकी
क्रियायें सामान्य से भिन्न होती हैं।
परन्तु
प्रश्न उठता है कि हम ऐसे सदगुरु को पहचाने कैसे,
कहाँ
खोजें ? परन्तु यह भी सत्य है कि जो सदगुरु होता
है वह जीवन के किसी न किसी पड़ाव में (पुण्य कर्म के संस्कारो के अनुसार) नजदीक आता
जरूर है, जरूरत है उसे पहचाने की एवं पहचान होने
पर उनके चरणों को पकड़ने की।
निश्चित
ही हमें इस खोज में हजारों ढोंगी गुरुओं से अपने आप को ठगाना पड़ता है। नतीजा यह
होता है कि अपने आप को ठगाते-ठगाते इतना टूट चुके होते हैं कि अगर उस समय सचमुच का
सद्गरु या मार्गदर्शक सामने आ भी जाता है तो हम उसे पहचानने से एवं उसके बताये
मार्गों पर चलने से इंकार कर देते हैं। क्योकि एक कहावत है कि- दूध का जला छाछ को
भी फूंक फूंक कर पीता है-
निश्चित
ही अध्यात्म का मार्ग बहुत कठिनाई युक्त है परन्तु जो व्यक्ति इस मार्ग की पहली
सीढी पार कर लेता है,
अर्थात सद्गुरु की पहचान कर लेता है तो उस का पचास प्रतिशत
कार्य पूरा हो जाता है, इसके
बाद की आवश्यकता तो अपने आप को सद्गुरु के बताये रास्ते पर डालने की होती है,
अपने
आपको गुरु चरणों में विसर्जित करने की होती है,
गुरु
के एक-एक आदेश में अपने आपको न्यौछावर करने की होती है। क्योकि सच्चा मार्गदर्शक
कभी भी अपने शिष्य का अहित नहीं सोचता हैं,
न
ही करता हैं। वह सदा ही अपने शिष्य को अध्यात्म की ऊँचाइयों की तरफ ही बढाता है।
परन्तु समस्या यह है कि अगर हमने ऐसे सद्गुरु को खोज लिया,
फिर
भी उसके ऊपर विश्वास कैसे करे कि यह निश्चिय ही सद्गुरु है जिनकी हमें तलाश हैं।
हम
यहाँ एक वाक्य उल्लेख कर रहे हैं क्योंकि हमारे सद्गुरुदेव जी ने हमें सच्चे गुरू
की पहचान का एक सरल एवं सुगम मार्ग बताया था कि अगर हम किसी गुरु के पास जायें और
उससे सामाजिक परिवेश, रासरंग
या पारिवारिक स्तर की बातें करें तो अगर
वह गुरु बहुत खुश हो और रस ले लेकर आपसे बाते करे,
इन्ही
बातों में घन्टों या रोज ही ऐसी बाते करने पर प्रसन्न रहे और ऐसी बाते करने को
कुरेदे तो समझ लेना चाहिये कि वह पूर्णतया ढोंगी,
पाखंडी
गुरु है और अगर सच्चा गुरु होतो तो निश्चिय ही बेमन से हाँ हूँ करेगा उनका इन फिजूल
की बातों में मन नहीं लगेगा और वे ढीले-ढीले स्थिति में बैठ जायेंगे और आप ऐसे
गुरु के सामने अध्यात्म की बातें छेड दे ंतो वे अगर लेटे भी होगें तो भी पूर्णतया
अपनी मेरूदण्ड सीधी करके बैठ जायेंगे और उन बातों में रस लेने लगेंगे चाहे यह
चर्चा महीनों चलती रहे तो भी वे पूर्ण प्रसन्न रहेंगें एवं ऐसे सद्गुरु के पास
बैठने में ही आत्मतृप्ति की अनुभूति होती हैं। लगता है कि घंटों बैठ उनकी बातें
सुनते रहें, उनका दर्शन लाभ लेते रहें एवं आनन्द
युक्त तृप्ति की अनुभूति होती है जिसे लिखना सम्भव नहीं है। ठीक इसके विपरीत ढोंगी
गुरु अध्यात्म की बात करने से कतराने लगेंगे और बात को जल्दी ही खत्म करने की
सोचेंगे या ऐसा उत्तर देंगे कि आपकी समझ में न आये और अन्त में कहेंगे कि ’बच्चा’
आध्यात्म
बडा दुरुह है। इसे बडे-बडे योगी-मुनि नहीं समझ पाये,
तुम
क्या समझोगे ? इस मार्ग के लिए वर्षों गुरुओं की
लंगोटियाँ धोनी पडती हैं आदि-आदि बातों में टाल देंगे क्योकि उन्हे सही उत्तर खुद
ही नहीं मालूम रहता। उनका तो मात्र उद्देश्य पैसा ठगना या निजी स्वार्थ सिद्ध करना
होता है। यह सच्चे सद्गुरु की एवं ढोंगी गुरु की सरल एवं प्रामाणिक पहिचान है,
जिससे
सही गलत की पहचान की जा सकती है।
यह
मार्ग श्री हनुमान जी ने भी अपनाया था, वानरराज
सुग्रीव के कहने पर श्री हनुमान जी ने ब्राम्हण का वेष धारण कर भगवान राम एवं
लक्ष्मण जी के पास जाते हैं एवं श्री हनुमान जी भगवान राम का परिचय पूंछते हैं तथा
वन में भटकने का कारण पूंछते हैं। वहाँ घण्टों प्रश्न तथा उत्तर का आदान प्रदान
होता है। हर तरफ से अपनी शंकाओं का समाधान करने के बाद वे भगवान श्री राम जी के
चरणों में पूर्ण श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते हैं एवं अश्रुपूरित हो अनेकों तरह से
उनकी स्तुति विनय करते हैं तथा अपने इष्ट को (सद्गुरु को जो इसी जीवन में मोक्ष की
प्राप्ति करा सके) पहचानने के बाद उनकी सेवा में उसी क्षण से लग जाते हैं और
धीरे-धीरे अपने इष्ट का पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा के साथ पूर्ण समर्पण भाव से
अनुसरण करते हुये पूर्णतः इष्टमय होने की क्रिया प्राप्त कर लेते हैं तथा स्वतः ही
समस्त रिद्धियों एवं सिद्धियों के मालिक बन जाते हैं। फिर भी वे अहंकार में नहीं
डूबते, वे सदा भगवान राम की सेवा करते हुये राम
नाम मंत्र जाप (इष्ट या गुरु द्वारा प्रदत्त मंत्र) में सदैव लीन रहते हैं और इसी
का ही फल है कि वे समस्त विश्व में पूजनीय है और साधक या शिष्य के जीवन में (जो
गुरु की सेवा के माध्यम से मोक्ष या परमतत्व का आकांक्षी है) श्री हनुमान चरित
अनुकरणीय है।
आज
हम इस युग के महानतम् सद्गुरुदेव (ऋषि परम्परा की एक महत्वपूर्ण कड़ी जिसने युग
परिवर्तन हेतु अवतार लिया है) परमहंस योगीराज श्री शाक्तिपुत्र जी महाराज से जुड़े
हुए हैं जो सिद्धाश्रम के संस्थापक-संचालक स्वामी सच्चिदानंद जी के अंशावतार हैं
और अगर वे निश्चिय ही चाह लें तो हमें मोक्ष प्राप्ति तक की यात्रा इसी जीवन में
करा सकते हैं। इनके द्वारा अब तक समाज में हजारों लोगों को जीवनदान दिया गया है,
लाखों
लोगों को नशामुक्त एवं मांसाहार मुक्त कर माँ भगवती की साधना उपासना की तरफ अग्रसर
किया गया है, सैकडों भविष्यवाणियाँ कि गई हैं जो
अक्षरशः सत्य सिद्ध हुई हैं। गुरुदेव जी के द्वारा माँ नाम की अलख जन-जन में जागृत
करने हेतु माँ भगवती का श्री दुर्गा चालीसा का अखण्ड पाठ,
पंचज्योति
शाक्तितीर्थ सिद्धाश्रम स्थल पर 15
अप्रैल 1997 से
अनवरत चल रहा है एवं इसी तारतम्य में जगह-जगह पर एक लाख से अधिक स्थानों पर 24-24
घण्टे के श्री दुर्गा चालीसा पाठ के क्रम करवाये जा चुके हैं और यह क्रम अनवरत चल
रहे हैं। पूज्य गुरुदेव जी के जन्म के विषय में आज से 400
वर्ष पूर्व ही विदेशी भविष्यवक्ता नास्त्रेदमस आदि अनेकों भविष्यवक्ताओं ने अपनी
भविष्यवाणियों मे लिख रखा है। जरूरत है इन सभी प्रमाणों को इकट्ठा कर समझने की और
विश्वास करने की। अगर हमने इन्हें वास्तविक रूप में पहचान लिया तो एक ही जीवन
पर्याप्त होगा मोक्ष तक पहुँचने हेतु। इसलिये इनके वास्तविक स्वरूप को पहचान कर
अपने आप को गुरुमय बनाते हुये इनके द्वारा
प्रदत्त गुरुमंत्र ऊँ शाक्तिपुत्राय गुरुभ्यो नमः एवं चेतना मंत्र ऊँ जगदम्बिके
दुर्गायै नमः का जाप पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा समर्पण भाव से करने की एवं उनके
एक-एक क्रियाकलाप को अपने जीवन में उतारने की,
गुरुयम
होकर उनकी सेवा करने की। निश्चिय ही वे हमें आदिशक्ति जगत जननी,
समस्त
देवाधिदेवों द्वारा पूजित माँ भगवती दुर्गा जी के ममतामयी स्वरूप के आंचल की छांव
तक इसी जीवन में पहुँचा देंगे।
यह
सब कुछ सम्भव हैं क्योंकि यह बात तो पूज्य गुरुदेव जी महाराज ने स्वयं स्वीकार की
है। जरूरत है उनके द्वारा बताये हुये मार्ग पर गुरुमय होकर चलने की। पूज्य गुरूवर
जी हमें मां भगवती के धाम की यात्रा कराने को तत्पर हैं।
जो
साधक या आध्यात्म में रूचि रखने वाला भक्त या शिष्य श्री हनुमान जी के पग चिन्हों
में चलेगा यह निश्चिय ही अपने हृदय में अपने इष्ट के दर्शन स्वतः प्राप्त कर सकता
है एवं सभी को दर्शन करा सकता हैं।
हम
तो तुच्छ प्राणी हैं इसलिये करबद्ध साष्टांग दण्डवत होकर प्रार्थना करते हैं कि
हे पवनपुत्र अंजनी नन्दन भगवान श्री राम सेवक श्री हनुमान जी जिस तरह आपने स्वयं
इष्टमय होकर अपने इष्ट की सेवा की है उस क्रिया का सूत्रपात हम तुच्छ मानवों के
अन्दर भी करें जिससे हम भी गुरुमय होकर अपने सद्गुरुदेव जी की सेवा करते हुये
गुरुचरणों में पूर्णतः विसर्जित हो सकें और पूज्य गुरुदेव जी के साथ ममतामयी माता
के दरबार की झांकी के दर्शन प्राप्त कर सकें।
इन्हीं
भावों के साथ हे महाभक्त श्री श्री 1008
श्री हनुमान जी, हम आपको कोटि कोटि लक्ष्य लक्ष्यसः
प्रणाम करते हैं।
’’गुरुमय
होने की क्रिया, जो कोई लेवे जान।
गुरु चेतन के मंत्र में, तन्मय होय सुजान।।
गुरु चेतन के मंत्र में, तन्मय होय सुजान।।
गुरुवार
व्रत साथ में, लेवे जो अपनाय।
भव सागर को पारकर, ’’माँ’’ के दर में जाय।।
भव सागर को पारकर, ’’माँ’’ के दर में जाय।।
गुरु
सेवक
बृजपाल
सिंह चौहान
अतिसुन्दर एवं प्रेरणादायी विचार🙏
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