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• अध्यात्ममार्ग के अवरोध प्रशंसा और निन्दा (Barrier of Spirituality admire and Jealous)

Barrier of Spirituality admire and Jealous


अध्यात्ममार्ग के बहुत बड़े अवरोध प्रशंसा और निन्दा

(Barrier of Spirituality admire and Jealous)

प्रशंसा

तारीफ, यानि बड़ाई किसे अच्छी नहीं लगती? पेड़ की डाली पर बैठे चोंच में रोटी का टुकड़ा लिए हुए कौए से चालाक लोमड़ी ने कहा, ‘‘भैया, तुम कितने सुन्दर हो! तुम्हारी आवाज भी मधुर होनी चाहिए। एक गाना सुनाओ ना!’’ खुश होकर कौए ने गाना गाने के लिए जैसे ही मुंह खोला, रोटी का टुकड़ा नीचे गिर गया और उसे लेकर लोमड़ी चम्पत हो गई।

यह लघुकथा हमें सावधान करती है कि जब भी कोई हमारी प्रशंसा करे, हमें तुरन्त चौकस होजाना चाहिए। उस समय बड़े शान्त भाव से यह सोचें कि क्या वास्तव में हम उस प्रशंसा के लायक हैं? यदि असल में ऐसा है, तो जिस हमारे गुण के लिए प्रशंसा की गई है, उसे ‘माँ’ की कृपा और गुरुवर के आशीर्वाद का फल कहें तथा उसे और अधिक बढ़ाने का प्रयास करें। अन्यथा, जिस तरह चालाक लोमड़ी ने कौए को बेवकूफ बनाया, उसी तरह कोई हमारा भी उल्लू बना सकता है। कोई व्यक्ति प्रशंसा किस भाव से कर रहा है, यह सोचने और समझने की जरूरत है। किसी-किसी व्यक्ति को उसकी प्रशंसा कार्य के लिए उत्साहित भी करती है, किन्तु अपनी प्रशंसा सुनकर प्रायः व्यक्ति का अहंकार समृद्ध होता है, जो आगे चलकर उसके पतन का मुख्य कारण बनता है। अतः बुद्धिमान् लोग प्रायः अपनी प्रशंसा सुनना पसन्द नहीं करते।

यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि सामान्यता हर व्यक्ति को अपनी प्रशंसा सुनकर सुख की अनुभूति होती है। यही कारण है कि जानेमाने अमेरिकन लेखक डेल कार्नेगी ने इस सम्बन्ध में ‘हाउ टु विन फ्रैंड्स ऐण्ड इन्फ्लुऐन्स पीपुल’ (मित्र किस तरह बनाएं और लोगों को कैसे प्रभावित करें) नामक एक पुस्तक लिख डाली है। इसमें लोगों की प्रशंसा करते हुए उनको बुद्धू बनाकर अपना काम निकालने के एक से बढ़कर एक नुस्खे दिए हुए हैं। ये नुस्ख़े कितने कारगर हुए हैं, यह तो प्रयोगकर्ता ही जानें, किन्तु उक्त पुस्तक बाज़ार में धड़ाधड़ बिकी और लेखक जल्दी ही करोड़पति बन गया।

वस्तुतः सिद्धान्त यह है कि यदि आप किसी की प्रशंसा करें, तो सर्वदा निष्कपट भाव से करें और यदि कोई आपकी प्रशंसा कर रहा हो, तो उसे सामान्य भाव से सुनें। पीठ पीछे की गई प्रशंसा अपेक्षाकृत अधिक हितकर होती है।

आत्मप्रशंसा

हज़ार वर्ष तक घोर तपस्या तथा संयम-नियम करते हुए महाराज ययाति ने शरीर त्याग किया, तो उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई। स्वर्ग पहुंचने पर देवताओं ने उनका सम्मान किया। देवराज इन्द्र ने भी उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें अपने सिंहासन पर बैठाया और पूछा, ‘‘महाराज, यह बतलाने की कृपा करें कि आपने ऐसे कौन से पुण्य किये थे, जिनके फलस्वरूप आपको स्वर्ग की प्राप्ति हुई है?’’

यह सुनकर घोर तपस्वी राजर्षि ययाति का अहंकार जाग गया और वे अपने पुण्यों और सत्कर्मों का बखान करने लगे। उन्होंने यह भी कहा कि विश्व में उनके समान अन्य कोई भी तपस्वी नहीं है। किन्तु, प्रकृति का यह नियम है कि अपने मुख से अपने सत्कर्मों का बखान करते ही वे क्षीण हो जाते हैं। अतः ययाति के सारे पुण्य क्षीण हो गए। फलतः राजर्षि ययाति स्वर्ग से पतित होकर पुनः मृत्युलोक में पहुंच गए। इसलिए सदैव हमें आत्मप्रशंसा से बचना चाहिए।

अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना बहुत ही उथलापन है। प्रायः ओछे लोग ही ऐसा करते हैं। किन्तु, गम्भीर स्वभाव के लोग कभी भी आत्मप्रशंसा नहीं करते। इस सम्बन्ध में रहीम कवि ने बड़ी अच्छी बात कही हैः

बड़े बड़ाई ना करैं, बड़े न बोलैं बोल।
रहिमन हीरा कब कहै, लाख टका है मोल।।

हीरा तो यदि रेत में भी पड़ा है, उसकी चमक देखकर लोग स्वतः उसकी ओर आकर्षित होते हैं और उसकी तारीफ करते हैं। असली आनन्द तो तब होता है, जब कोई दूसरा व्यक्ति आपकी बड़ाई करे।
दान देकर यदि इधर-उधर कह दिया, तो वह भी पूर्णतया निष्फल होजाता है। प्रायः लोग सोचते हैं कि उन्होंने जहाँ दान दिया है, वहाँ की समस्त व्यवस्थाएं उन्हीं के कारण चल रही हैं, जबकि वह सब कुछ प्रकृतिसत्ता की कृपा से संचालित होता है।

एक बैलगाड़ी चली जा रही थी, जिसके नीचे घुसा एक कुत्ता भी उसकी छांव में साथ-साथ चल रहा था। उसे भ्रम हुआ कि बैलगाड़ी उसी के बल पर चल रही है। यदि वह रुक गया, तो बैलगाड़ी रुक जाएगी। फलस्वरूप, वह रुक गया और बैलगाड़ी नहीं रुकी। वह निरन्तर आगे बढ़ती चली गई। इस प्रकार के लोगों का भी यही हाल है।
इसी प्रकार, यह कहना भी निरा पागलपन ही है कि मुझसा बड़ा ज्ञानी, वक्ता, लेखक, कवि अथवा साहित्यकार आदि और कोई नहीं है। दरअसल, यह दुनिया बड़ी विशाल है। यहां पर हर क्षेत्र का एक से बढ़कर एक पारंगत एवं निष्णात व्यक्ति मौजूद है, जिनके समक्ष हमारी हस्ती नितान्त शून्यवत् है।

निन्दा

दूसरों के दोषों को देखकर, सुनकर या जानकर जब उन्हें अन्य कहीं पर व्यक्त किया जाता है, तब वह निन्दा या आलोचना कहलाती है।

निन्दा का भौतिक जगत् एवं आध्यात्मिक जगत् दोनों में बहुत महत्त्व है। जब भी किसी की निन्दा की जाती है, तो निन्दक के मन में उसका चिन्तन स्वतः ही होजाता है तथा अदृश्य रूप से उसके अवगुणों का संचार भी उसमें होजाता है। इससे निन्दक को पाप की प्राप्ति होती है। इसीलिए, निन्दा को एक ऐसी अग्नि कहा गया है, जो निन्दित व्यक्ति के पापों का क्षय करती है और निन्दक के पापों को बढ़ाती है। निन्दक यदि सही निन्दा करे और निन्दित व्यक्ति उसे सकारात्मकता से ले, तो ऐसा निन्दक उसके लिए उपयोगी हो सकता है। इसीलिए कबीर दास कहते हैंः
निन्दक नियरे राखिये, आंगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।।
वैसे भौतिक जगत् में अपनी बुराई या आलोचना सुनकर व्यक्ति प्रायः तुरन्त क्रोधित होजाता है और उसकी प्रतिक्रियास्वरूप कलह की उत्पत्ति होती है। आलोचना या निन्दा करने वाला व्यक्ति उस व्यक्ति से अधिक बुरा माना जाता है, जिसने गलती की है।

किसी की गलती को निष्कपट भाव से सीधे उसी को इंगित करना अत्यन्त श्रेष्ठ है। किन्तु, यदि उसे दूसरों के सामने व्यक्त करेंगे, तो सम्भव है कि सुनने वाला व्यक्ति उसमें नमक-मिर्च लगाकर उससे कहे। ऐसा सामान्यतया होता भी है। इसके फलस्वरूप, परिवार, समाज अथवा कार्यक्षेत्र में कलह होती है और वातावरण दूषित होता है।
किसी-किसी व्यक्ति का स्वभाव होता है निन्दा करना। उसे अपने स्वयं के दोष दिखाई नहीं देते। इस कारण उसके स्वयं के सुधार के अवसर समाप्त होजाते हैं। निन्दा करने से हम भले ही दूसरे का कोई नुकसान न कर सकें, किन्तु पहले अपना खुद का नुकसान जरूर कर लेते हैं। निन्दा का भाव उदय होते ही व्यक्ति का हृदय काला हो जाता है और इस प्रकार दूसरों के दोष ढूंढ़ते-ढूढ़ते हम स्वयं दोषी होजाते हैं।

हमारे देश में सबसे बड़ा निन्दक हमारा जातीय समाज है। यद्यपि उसकी स्थापना अपनी जाति के लोगों की सेवा-सहायता करने के लिए की गई थी, किन्तु उसने कभी भी ऐसा नहीं किया। वह तो खाली लोगों की निन्दा और भर्त्सना करना जानता है।

यदि आप अपनी जाति से छोटी जाति वालों के यहाँ जाकर पानी पी लेते हैं, तो आपका पूरा समाज आप पर उंगली उठाएगा। यदि आपको अपनी लड़की की शादी के लिए अपनी जाति में कोई योग्य वर नहीं मिल रहा हो और आप उसकी शादी गैर जाति के सुयोग्य लड़के से कर देते हैं, तो आपको तत्काल आपके समाज से निष्कासित कर दिया जाएगा। इससे ज्यादा वह कुछ नहीं कर सकता। वह लड़की के लिए वर ढूंढ़ने में आपकी सहायता नहीं करेगा।

किन्तु, आपको इससे बिल्कुल भी परेशान होने की जरूरत नहीं है। इससे पहले कि आपका निकम्मा समाज आपको निष्कासित करे, आप उसे दृढ़तापूर्वक पूर्णतया त्याग दें। परम पूज्य सद्गुरुदेव योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज के द्वारा स्थापित योगभारती समाज आपको गले लगाने के लिए तैयार खड़ा है।
परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् अनेक बार कह चुके हैं कि आप लोग अपने बच्चों की शादियां भगवती मानव कल्याण संगठन से जुड़े लोगों के यहां ही करें, जो पूर्ण नशा-मांस, जातिभेद, छुआछूत एवं साम्प्रदायिकता से मुक्त चरित्रवान् लोगों का योगभारती समाज है। ऐसे परिवारों से जुड़कर आपके बच्चे कहीं अधिक सुख-शान्ति से रहेंगे।

कोई भी सच्चा साधक कभी भी किसी की निन्दा करने में विश्वास नहीं करता। वह तो अन्तर्मुखी होकर सतत् अपने ही दोष देखने का प्रयास किया करता है। यदि कोई उसकी निन्दा करे, तो उसका जवाब देना या प्रतिकार करना भी उसका स्वभाव नहीं होता। कोई उसकी निन्दा करे या प्रशंसा, इस ओर ध्यान न देकर वह निरन्तर सत्यपथ पर बढ़ता जाता है। उसे इस बात की बिल्कुल भी परवाह नहीं होती कि समाज अथवा कोई व्यक्ति क्या कहेगा? उसका ध्यान तो सदैव माँ-गुरुवर के चरणों में रहता है और उसे चिन्ता इस बात की रहती है कि माता भगवती अथवा गुरुवरश्री क्या कहेंगे? अन्यथा, इस दुनिया में शायद ही ऐसा कोई मनुष्य हो, जिसको अपनी निन्दा में दुःख और प्रशंसा में सुख की अनुभूति न होती हो।

एक बार जानेमाने स्वतन्त्रता सेनानी और समाजसुधारक पं. मदनमोहन मालवीय जी के पास एक सज्जन आए और उनकी प्रशंसा में स्वरचित एक कविता का पाठ करने लगे। पण्डित जी ने उन्हें बीच में ही रोका और बोले, ‘‘आपकी यह कविता ऐसी है, जिसे मैं किसी के सामने सुना भी नहीं सकता। अच्छा होता यदि आप राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत कोई कविता लिखते या भगवान् की स्तुति में कुछ लिखते।’’ यह सुनकर वह सज्जन अपना सा मुंह लेकर रह गए।

सामान्यतया सभी धर्मगुरु अपने शिष्यों को अपने से जोड़े रखने या उनसे कुछ पाने की अपेक्षा से उनकी बड़ाई करते नहीं अघाते। यदि कोई राजनेता या मंत्री आजाए, तो माल्यार्पण करके वे उनका स्वागत करते हैं और अपनी बगल में सोफे पर बैठाते हैं। उनकी प्रशंसा में वे ऐसे-ऐसे कसीदे काढ़ते हैं, जिनका कोई हिसाब नहीं। यह
सब उथलापन और पतन का मार्ग है।

किन्तु, परम पूज्य सद्गुरुदेव भगवान् योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ऐसी बातों से सदैव कोसों दूर रहते हैं। आप बिरले ही कभी अपने शिष्यों की प्रशंसा करते हैं, बल्कि बहुधा उनकी कमियां ही इंगित करते हैं, ताकि उनमें सुधार आ सके।

यद्यपि जनप्रतिनिधियों, शासकीय अधिकारियों तथा समाज के अन्य प्रतिष्ठित लोगों को गुरुवरश्री के शिविर में समुचित स्थान दिया जाता है, किन्तु कभी भी किसी का माल्यार्पण नहीं किया जाता और न ही गुरुवरश्री किसी को अपनी बगल में बैठाकर उसकी प्रशंसा करते हैं। वे भी अन्य सभी भक्तों की तरह भक्तिभाव से बैठकर आपका दिव्य उद्बोधन सुनते हैं और अन्त में चरण स्पर्श करके आपका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। इसका कारण यही है कि आप पूर्णरूप से आत्मनिर्भर हैं तथा आपको किसी से भी कुछ पाने की कोई अपेक्षा नहीं रहती है।

ऐसी बात नहीं है कि प्रशंसा और निन्दा सदैव अहितकर ही हों। यदि किसी व्यक्ति के गुणों की प्रशंसा दूसरों के सामने की जाय, तो वह उनके लिए सत्प्रेरणादायक हो सकती है और वे भी उन गुणों को अपने अन्दर विकसित करने का प्रयास कर सकते हैं। इसी प्रकार, कहीं पर यदि अनीति-अन्याय-अधर्म हो रहा हो, तो उसकी जितनी भी निन्दा की जाय, कम है। ऐसे में यदि हम मूकदर्शक बने रहते हैं, तो हम भी उस पाप के भागीदार बनेंगे। उस स्थिति में तो मुखर होकर हमें पुरजोर तरीके से उसके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए और लोगों को जाग्रत् करना चाहिए। तभी तो सुधार का रास्ता निकलेगा।
परे रहकर प्रशंसा-निन्दा से, अपना जीवन जो बिताते हैं।
ऐसे सच्चे साधक ही तो, सत्यपथ पर बढ़ते जाते हैं।।
कल्याण अपना तो करते ही, दूसरों का भी कल्याण करें।
जीवन में आनन्द बरसता, कृपा ‘माँ’-गुरुवर की पाते हैं।।

1 comment:

  1. निश्चित ही बहुत ज्ञान वर्धक है यह ब्लॉग

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