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• जात-पात की गहरी खाई

Jaat Paat Ki Gahari khhai
जात-पात की गहरी खाई

जात-पात की गहरी खाई।

जनता गिरी, निकल नहि पाई।।

निःसन्देह, जातपात के भेदभाव को मिटाने की समस्या हमारे देश की जटिलतम समस्याओं में से एक है। इसके चलते हमारा कितना नैतिक एवं आध्यात्मिक पतन हुआ है तथा देश की प्रगति कितनी बाधित हुई है, इसका अनुमान लगाना कठिन है।

पाश्चात्य देशों में प्रायः एक ही धर्म है तथा वहाँ पर जाति नाम की कोई चीज नहीं है। इसलिये, वहाँ की जनता में परस्पर सौहार्द एवं सामंजस्य रहता है। यही कारण है कि उनमें से कुछ देश ऐसे हैं, जो हमसे बाद में स्वतंत्र हुये, फिर भी वे विकसित देशों में गिने जाते हैं।

किन्तु हम लोग जातपात के ऐसे मकड़जाल में फंसकर रह गये हैं, जिसमें से जल्दी निकल पाना सम्भव नहीं लगता। जातपात के कारण यहाँ की जनता में प्रायः परस्पर मनमुटाव एवं तनाव रहता है। इसी के आधार पर आरक्षण का राजनैतिक खेल भी खेला जाता है, आन्दोलन होते हैं और तोड़फोड़ होती है। ऐसे में लगता है, जैसे लोग पागल हो गये हों। अपनी ही सम्पत्ति को बेदर्दी से बर्बाद किया जाता है। यही वजह है कि छः दशक से ऊपर की स्वतंत्रता प्राप्ति के बावजूद हम अभी भी विकासशील ही बने हुये हैं।

ऐसी बात नहीं है कि इस समस्या की ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती, पं. मदन मोहन मालवीय तथा महात्मा गांधी जैसे अनेक मूर्धन्य सामाजिक एवं आध्यत्मिक नेता हुये हैं, जो आजीवन इस अभिशाप को मिटाने में लगे रहे। उनकी मेहनत काफी कुछ रंग लाई भी, छुआछूत मिटी और अन्त्यजों को मंदिरों एवं देवस्थलों में प्रवेश मिला। किन्तु, जातपात का भेदभाव अभी भी बरकरार है।

शुरूआत कैसे हुई ?

हमारे आर्षग्रन्थों में चतुर्वर्णीय समाज का उल्लेख तो मिलता है- वैदिक काल में पूरा समाज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र, इन चार वर्णों में विभक्त था। यह विभाजन कर्म पर आधारित था। जो वर्ग वेदाध्ययन-अध्यापन, पूजा-पाठ और यज्ञादि कराता था, ब्राह्मण कहलाया, जो समाज की रक्षा का कार्य करता था, क्षत्रिय कहलाया, जो खेतीबाड़ी एवं व्यापार का कार्य करता था, वैश्य कहलाया और जो इन सबकी सेवा का कार्य करता था, उसे शूद्र कहा गया। इनमें परस्पर कोई भेदभाव था, ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है। सभी एक दूसरे को सामान्य मानव ही समझते थे।

जातिप्रथा कब से प्रारम्भ हुई और किसने प्रारम्भ की, इस बात की कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
इतिहासकार बताते हैं कि 1600 ई. पू. से 600 ई. पू. तक वैदिक काल रहा है। उसके उपरान्त आर्य लोग भारत आये। उनके आगमन के बाद ही यहाँ पर जातिप्रथा प्रारम्भ हुई। अस्तु, जातिप्रथा का आधार कर्म नहीं, अपितु जन्म हो गया। इस प्रकार, वर्ण का स्थान जाति ने ले लिया। जो जिस कुल में उत्पन्न हुआ, वह उसी जाति का कहलाया, भले ही उसने कार्य कोई भी किया।

वर्तमान स्थिति

हाल के दिनों में जाति एवं वर्ण समाप्तप्राय हो चुके हैं। ये केवल व्यक्ति की पहचान हेतु कहने भर के लिये रह गये हैं। व्यवहार में सब गड्ड-मड्ड हो गया है। आज एक ब्राह्मण व्यापार एवं खेती करता है, शिक्षक है, सैनिक है और चपरासी आदि सेवक भी। इसी तरह, अन्य वर्णों एवं जातियों के लोग भी सभी कार्य कर रहे हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि आज सभी वर्गों के लोग ब्राह्मण भी हैं, क्षत्रिय भी, वैश्य भी और शूद्र भी। तब इनमें भेदभाव कैसा ? कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति, भले ही वह किसी भी वर्ण अथवा जाति का हो, यही कहेगा कि वर्तमान जातपात का भेदभाव अब अविलम्ब समाप्त हो जाना चाहिये। इसके बने रहने का कोई तुक नहीं है।

सबसे बड़ी कठिनाई 

ऐसी स्थिति में पूछा जा सकता है कि तब जातपात के भेद को क्यों नहीं समाप्त किया जाता? इसका सीधा सा उत्तर है कि इसके लिए हमारे धर्मगुरु तथा राजनेता जिम्मेदार हैं। देश और समाज को ये लोग ही दिशा देते हैं। दिक्कत यहीं पर है।

धर्मगुरु तो लोगों को प्रायः कथाएं-किस्से सुनाकर धन बटोरने और अपना वैभव बढ़ाने में लगे हुये हैं। लोककल्याण की बातें करते हुये उन्हें कभी नहीं सुना जाता। वे जातपात के भेद को मिटाने के प्रति बिल्कुल उदासीन हैं, क्योंकि उनका काम तो उसके बिना ही बड़े आराम से चल रहा है।

जहां तक राजनेताओं का सम्बन्ध है, वे तो जातपात के भेदभाव को और बढ़ावा देते हैं। देश को जातपात और सम्प्रदायों में बांटकर राज करने का फार्मूला उन्होंने अंग्रेजों से सीखा है और वे उसी का प्रयोग कर रहे हैं। कुछ चुनाव क्षेत्रों को एक जाति विशेष के लिए आरक्षित घोषित कर दिया गया है। अनारक्षित क्षेत्रों में भी प्रायः अघोषित आरक्षण है। ब्राह्मण बाहुल क्षेत्र से प्रत्येक राजनैतिक दल ब्राह्मण प्रत्याशी को ही खड़ा करता है। इसी प्रकार, जाट बाहुल क्षेत्र में जाट प्रत्याशी ही चुनाव मैदान में उतारे जाते हैं। ऐसे में कैसे आशा की जाए कि हमारे ये राजनेता जातपात को समाप्त कर देंगे?

रही सामान्य जनता, उसके खून में जातपात और ऊँच-नींच का भेद इस कदर रम गया है कि छुड़ाए नहीं छूटता। हाल ही में, जातपात विरोधी एक आध्यात्मिक संगठन के पदाधिकारी के पास उनकी पुत्री के विवाह के लिए उन्हीं की जाति के एक युवक का प्रस्ताव भेजा गया था। किन्तु, यह जानकर घोर आश्चर्य एवं कष्ट हुआ कि वह तो अपनी जाति में ही ऊंच-नींच का भेद करने लगे। ऐसे में यही कहना पड़ेगा कि हमारे देश में जातपात के भेद को मिटाना बहुत ही कठिन है।

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