योग ही जीवन है Yog Hi Jeevan Hai
योग ही जीवन है Yog Hi Jeevan Hai
आजकल भागमभाग की इस जिन्दगी में प्रायः लोग अपने शरीर से बिल्कुल बेखबर हो गये हैं। कदाचित् उन्हें इस बात की भी जानकारी नहीं है कि यह जिन्दगी इस शरीर के सहारे ही चल रही है। यदि शरीर गड़बड़ा गया, तो यह जिन्दगी रुक जाएगी। शरीर फिट रहेगा, तो हम प्रफुल्लचित्त रहेंगे और अपना हर कार्य पूरी क्षमता के साथ कर सकेंगे। योग एक ऐसी विधा है, जिसको अपनाकर हम अपने शरीर को दुरुस्त रख सकते हैं। वर्तमान समय में यह आबालवृद्ध सबके लिए अत्यावश्यक हो गया है।योग क्या है?
अगर कुण्डलिनी जागरण करना है तो यह करना ही होगा
navaratri siddhashram2017 Shri shaktiputra ji maharaj
सामान्यतया योग का अर्थ है मिलना या जुड़ना। अध्यात्म के अन्तर्गत मन और आत्मा के मिलन को योग की संज्ञा दी गई है। इस विधा के जनक, मुनि पतंजलि हैं। उनके अष्टांग योग के आठ अंग हैं- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। इनका सतत अभ्यास करते-करते साधक जब समाधि में जाता है, तब योग पूर्ण हुआ कहा जाता है। समाधि के नियमित अभ्यास से कुछ समय बाद इसका अनुभव इतना परिपक्व हो जाता है कि साधक का मन जाग्रत्, निद्रा और स्वप्नावस्था में भी आत्मा से जुड़ा ही रहता है। यह परमानन्द की स्थिति ही वास्तविक जीवन है। बिना योग के जीवित व्यक्ति भी मृत के समान है।
मानव मन स्वभावतः रात-दिन आनन्द की खोज में इधर-उधर भटकता रहता है। वह अपनी जननी आत्मा से मिलने को निरन्तर छटपटाता रहता है, किन्तु सही मार्ग न मिलने के कारण उससे मिल नहीं पाता। आत्मा से उसका वियोग सतत बना ही रहता है, जो आनन्द का असीम भण्डार है। इस प्रकार, वह आनन्द से सदैव वंचित रहता है। अज्ञानतावश वह भौतिक सुख को ही आनन्द मान बैठता है और उसकी मरीचिका के पीछे दौड़ते-दौड़ते व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इसीलिए, कहा जाता है कि वियोग ही मृत्यु है।
आम बोलचाल की भाषा में आसन-प्राणायाम को ही योग से सम्बोधित किया जाता है। यद्यपि खाली इनके द्वारा आत्मा तक नहीं पहुंचा जा सकता, तथापि इनके नियमित अभ्यास से मन एवं शरीर पूर्णतया स्वस्थ बने रहते हैं। और, स्वस्थ शरीर ही सुख का आधार है-- पहला सुख निरोगी काया!
योग का उद्देश्य
योग, अर्थात् आसन एवं प्राणायाम का मूल उद्देश्य शरीर का सन्तुलन, मन की एकाग्रता और श्वास (प्राणवायु) पर नियंत्रण प्राप्त करना है। योगासन करने से शारीरिक सन्तुलन प्राप्त होता है तथा प्राणायाम से श्वास पर नियंत्रण होता है। मन की एकाग्रता आसन और प्राणायाम दोनों से बढ़ती है।जैसे-जैसे व्यक्ति आसन की विभिन्न मुद्राओं को अधिक से अधिक देर तक करके अपने शरीर को थकाता है, तैसे-तैसे उसके शरीर की कार्यक्षमता बढ़ती है। इसी प्रकार, अधिक से अधिक देर तक प्राणायाम करने से उसके फेफड़ों की क्षमता भी बढ़ती है।
यदि हम अपने जीवन को अधिक से अधिक सात्त्विक बनाकर रखेंगे, तो उससे अतिरिक्त लाभ होगा। जितनी अधिक तन की शुद्धता और मन की पवित्रता रहेगी, उतनी ही मन की एकाग्रता बढ़ेगी।
योग की आवश्यकता
एक समय था, जब नमक-रोटी खाकर भी लोग स्वस्थ और तगड़े बने रहते थे। वे हल जोतते थे, फावड़ा चलाते थे और प्रतिदिन इतना कठोर परिश्रम करते थे कि सर्दियों में भी पसीने से लथपथ हो जाते थे। गर्मी के मौसम में खेत-खलिहानों में नीम या आम के पेड़ के नीचे लेटे रहते थे। घड़े का पानी पी-पीकर पूरी दोपहर गुजार देते थे। पच्चीस-तीस किलोमीटर पैदल चलना उनके लिए हंसी-खेल था। कुंए से पानी खींचकर नहाते थे और पीने के लिए भी लेजाते थे। महिलाएं घर-आंगन में गोबर की लिपाई करती थीं, चक्की चलाकर अनाज पीसती थीं और ऊखल-मूसल से धान कूटती थीं। इस प्रकार, अनायास ही उनका शरीर सक्रिय बना रहता था।इसमें कोई सन्देह नहीं कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ मनुष्य ने हर क्षेत्र में बहुत उन्नति की है। किन्तु, इस सबसे बड़ी हानि यह हुई है कि इसने मनुष्य को आरामतलब, आलसी एवं पंगु बना दिया है। अब कोई चार कदम पैदल नहीं चलना चाहता। सबको एयर-कण्डीशण्ड कमरा चाहिये। कूलर और फ्रिज तो आम बात हो गई है। मशीनीकरण के कारण अब परिश्रम करने की कोई जरूरत नहीं रह गई है।
ज्ञातव्य है कि मानव शरीर मूल रूप से कोशिकाओं का बना है। यह प्रकृति का नियम है कि हम जितना अधिक शारीरिक श्रम करते हैं, उतना ही हमारे शरीर की कोशिकाएं क्रियाशील और चेतन रहती हैं। इसके विपरीत, जितना अधिक हम आराम करते हैं, इन कोशिकाओं में उतनी ही जड़ता आती चली जाती है और उनमें संकुचन आने लगता है। इससे हमारे अंग-प्रत्यंग, फेफड़े और हृदय भी संकुचित होते चले जाते हैं। इसके फलस्वरूप, फेफड़ों में ऑक्सीजन की मात्रा घट जाती है और रक्तवाहिकाओं में अवरोध होकर उच्च रक्तचाप उत्पन्न हो जाता है। यही हृदय रोग की शुरूआत है।
जीवनस्तर ऊंचा उठाने की अंधी दौड़ में आधुनिक मनुष्य इतना तनावग्रस्त रहने लगा है कि वह हंसना तक भूल गया है। उसे सांस लेने तक की फुर्सत नहीं है। आरामतलबी का जीवन जीने और रिच डाइट लेने के कारण अधिकांश लोगों में चर्बी बढ़ जाती है और वे स्थूलकाय हो जाते हैं। अनेक लोग मधुमेह के रोगी बन जाते हैं। ऐसे लोगों को डॉक्टर मोटापा कम करने की सलाह देते हैं। यही कारण है कि आजकल समाज में लाफिंग क्लबों और व्यायामशालाओं की भरमार है। किन्तु, इन्हें ज्वॉयन करना भी एक फैशन बनकर रह गया है। वहां पर भी लोग पैदल चलकर नहीं, अपितु कारों से जाते हैं। इसलिए, मोटा पैसा खर्च करने के बावजूद, वहाँ पर अपेक्षित लाभ नहीं होता।
यही कारण है कि वर्तमान जीवनशैली के लिए योग अवश्यकरणीय हो गया है। आज प्रत्येक व्यक्ति के लिए प्रतिदिन कम से कम एक घण्टा आसन-प्राणायाम और पन्द्रह-बीस मिनट ध्यान करना उतना ही अनिवार्य है, जितना खाना और सोना। जो लोग पहले से ही विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं से घिरे हैं, उन्हें अवश्य ही योगासन करने चाहियें। साथ ही हर आयुवर्ग के स्वस्थ लोगों को भी चाहिये कि वे योग को अपनी दिनचर्या में अवश्य शामिल करें, ताकि वे इन समस्याओं से बचे रहें और पूर्ण स्वास्थ्य का आनन्द ले सकें।
कहां पर सीखें?
आज समाज में जहां-तहां कथित योगाचार्य, योगगुरु और योगऋषि मिल जायेंगे, जो योग के द्वारा कैंसर जैसे असाध्य रोगों से भी मुक्ति दिलाने की बातें करेंगे। निःसन्देह, योग से बहुमुखी लाभ होता है, किन्तु इतना भी नहीं कि एक झटका लगाने से शरीर का दस ग्राम वजन कम हो जाय या हाथों के नाखून परस्पर रगड़ने से बाल काले हो जायं!इस प्रकार की ऊलजलूल बातें करके ये लोग योगशिविर में सम्मिलित होने के लिए प्रति व्यक्ति दस-दस, बीस-बीस हजार रुपये अग्रिम रखवा लेते हैं। जिन लोगों को इससे किंचित् लाभ हो जाता है, उन्हें टी.वी. पर हाईलाइट किया जाता है, किन्तु जिन्हें बिल्कुल फायदा नहीं होता, उन्हें कोई नहीं पूछता। आखिर, उनकी आवाज कौन उठाएगा? ऐसे तथाकथित योगगुरुओं से सावधान रहने की आवश्यकता है, जिनका उद्देश्य ही खाली पैसा लूटना है।
हमारे प्राचीन ऋषि और योगी सदा से ही योग की शिक्षा निःशुल्क देते आये हैं। वे अपने आश्रम में साधकों को भोजन एवं आवास की सुविधायें भी निःशुल्क उपलब्ध कराते थे। धर्मसम्राट् युग चेतना पुरुष सद्गुरुदेव परमहंस योगीराज श्री शक्तिपुत्र जी महाराज भी उसी परम्परा का निर्वहन कर रहे हैं। गुरुवरश्री के आश्रम में भी प्रतिवर्ष नवम्बर से फरवरी के मध्य लगभग चार महीने निःशुल्क योग सिखाया जाता है तथा भोजन एवं आवास की व्यवस्था सदैव निःशुल्क रहती है। यदि आप चाहते हैं कि योग के विषय में आपको सही दिशा मिले, तो सदैव ऐसे ही ऋषि की शरण में जाना चाहिये, जो नितान्त निःस्वार्थ भाव से निःशुल्क योग सिखाते हैं।
कुछ बहुमूल्य सुझाव
कभी-कभी एक सुयोग्य गुरु से योग सीखने के बावजूद भी अपेक्षित लाभ नहीं होता। अतः इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों पर विशेष ध्यान देंः1. योग का अभ्यास नियमित रूप से किया जाना चाहिये। ऐसा नहीं है कि जब मूड हुआ, कर लिया और जब न हुआ, तो न किया। कुछ अपरिहार्य कारणों से एक-दो दिन छूट जाय, तो कोई बात नहीं, अन्यथा महीने में कम से कम 25-26 दिन तो योगाभ्यास अवश्य ही होना चाहिये। वास्तव में, योग के प्रति एक भूख होनी चाहिये।
2. योगाभ्यास सदैव खाली पेट करना चाहिये।
3. योग खाली रस्मअदायगी नहीं है कि हम अपने शरीर को किसी मुद्रा में स्थापित कर लें और समझ लें कि वह आसन पूर्ण हो गया। इससे कोई विशेष लाभ होने वाला नहीं है। पूर्ण लाभ की आशा तभी की जा सकती है, जब हम उस मुद्रा में सही तरीके से रहें। साथ ही प्रतिदिन कुछ अतिरिक्त करते जायं।
4. प्रत्येक योगमुद्रा के उपरान्त दो-तीन गहरी सांस अवश्य लें।
5. थकावट की स्थिति में कभी भी स्थिर खड़े न हों, बल्कि हाथ-पैरों को हल्के-हल्के चलाते रहें।
6. अपनी सांस पर विशेष ध्यान दें। फैलाव की स्थिति में सांस भरंे और संकुचन की स्थिति में बाहर निकालें। ऐसा ही प्राणायाम में भी करें।
7. कुम्भक एवं रेचक की अवधि प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा बढ़ाने का प्रयास करें।
8. योगाभ्यास कभी भी भारस्वरूप न करें। सदैव प्रसन्न एवं प्रफुल्लचित्त रहकर करें। इस बीच मन में यह भावना रहनी चाहिये कि हमारे अंग-प्रत्यंग में प्राणवायु का संचार हो रहा है तथा ऊर्जा निरन्तर बढ़ रही है।
9. साठ वर्ष से ऊपर आयुवर्ग के लोगों को अपनी क्षमता के अनुसार बड़ी सावधानी से योगाभ्यास करना चाहिये। यदि पीठ या घुटनों में दर्द हो, तो इनसे सम्बन्धित मुद्राओं को न करें। जिन लोगों को रक्तचाप, आर्थराइटिस या कब्ज आदि की समस्या है, उन्हें कुछ चुने हुये योगासन करने चाहियें।
10. कम आयुवर्ग के लोगों को योगाभ्यास पूरे जोश के साथ करना चाहिये, किन्तु झटके के साथ कभी भी न करें, अपितु धीरे-धीरे करें। इस प्रकार, कुछ दिन के अभ्यास से कठिन मुद्राएं भी बनने लगेंगी।
11. चूँकि बच्चों की हड्डियां अपेक्षाकृत अधिक लचीली होती हैं, अतः वे कठिन मुद्राओं को भी सहजता से कर लेते हैं। उन्हें योगाभ्यास के लिए अधिक से अधिक प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। यदि वे नियमित रूप से योगाभ्यास करते रहेंगे, तो बड़े होकर भी वे कठिन से कठिन मुद्राओं को सरलता से कर लेंगे और सदैव स्वस्थ बने रहेंगे।
12. हम जब भी कहीं पर भी बैठें, अपनी मेरुदण्ड (रीढ़ की हड्डी) को सदैव सीधी करके बैठें। इस प्रकार बैठने से हमें कभी आलस्य नहीं आएगा, हम सदैव चेतन बने रहेंगे और कई रोगों से बचे रहेंगे।
उल्लेखनीय है कि योग का अभ्यास निष्ठापूर्वक नियमित रूप से करते रहने से बुढ़ापा देर से आएगा और व्यक्ति की आयु दस से पन्द्रह वर्ष तक बढ़ जायेगी। उसे खिंच-खिंचकर जीवन जीना नहीं पड़ेगा। अन्तिम सांस तक उसकी जीवनयात्रा सुखी एवं आनन्दमयी रहेगी। इसलिए, हमें चाहिये कि भले ही हमारा कोई कार्य छूट जाय अथवा उसमें तनिक विलम्ब हो जाय, किन्तु योग का अभ्यास प्रतिदिन अनिवार्य रूप से करते रहें।
Yog Hi Jeevan Hai
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