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सद्गुरु कौन?, Who is Sadguru or Super Spiritual Teacher

Who is Sadguru or Super Spiritual Teacher


सद्गुरु कौन? (Who is Sadguru or Super Spiritual Teacher)

गुरुशब्द का अर्थ है शिक्षक या उस्ताद। जिस किसी से भी हमें कुछ सीखने को मिलता है, वह हमारा गुरु होता है। हमारे माता-पिता, स्कूल मास्टर और हमें कोई भी कार्य सिखाने वाले, सभी गुरु हैं। ये सब हमारे भौतिक जगत् के गुरु हैं और इन सबसे हमारा भौतिक सम्बन्ध होता है।

किन्तु, सद्गुरु हमें सत्य का ज्ञान कराता है। उसका सम्बन्ध आत्मिक होता है। इसलिए, यह सम्बन्ध संसार के समस्त सम्बन्धों में सर्वोपरि एवं सर्वश्रेष्ठ है। यह सम्बन्ध दृश्य एवं अदृश्य जगत् दोनों से जुड़ा है। यह प्रकृतिसत्ता की कड़ी का सम्बन्ध है और यह भावना, निष्ठा, भक्ति एवं समर्पण पर आधारित होता है।
एक सद्गुरु जब किसी व्यक्ति को मन-वचन-कर्म से अपना शिष्य स्वीकार कर लेता है, तो वह कभी भी इस सम्बन्ध को तोड़ता नहीं है। किन्तु, ऐसा करने के लिए वह अपने शिष्यों को बाध्य नहीं करता। इसके लिए वह उन्हें सदैव स्वतन्त्र रखता है।

सद्गुरु की शरण में आने से ही वास्तविक जीवन का शुभारम्भ होता है। उनकी कृपा हो, तो वे निरक्षर अज्ञानी को भी ज्ञानदान करके जगत् के कल्याण में नियुक्त कर सकते हैं। उनकी कृपा पाने के लिए उनके प्रति श्रद्धा, भक्ति एवं सेवाभाव अपेक्षित हैं। अति अधम पापी भी यदि साक्षात् परब्रह्म सद्गुरुदेव की शरणागत होकर उनकी सेवा करे, तो वह भी अनायास ही परम पद प्राप्त कर सकता है। गुरु में मनुष्यबुद्धि नहीं करनी चाहिये। उनका तो बस गुरुरूप ही उत्तम है। मात्र उनके आदेशों एवं उपदेशों का पालन करना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है।

धर्मगुरुओं का भटकाव

सनातन धर्म में आदिकाल से ही शिष्य-गुरु परम्परा स्थापित रही है। आदिशंकराचार्य के द्वारा स्थापित शंकराचार्य परम्परा के अनुसार सर्वाद्यगुरु भगवान् श्री नारायण हैं। उन्होंने तत्त्वज्ञान लोकहितार्थ सर्वप्रथम प्रजापति ब्रह्मा को प्रदान किया था। ब्रह्मा ने उसे वसिष्ठ को और वसिष्ठ ने अपने पुत्र, शक्ति को दिया। इस प्रकार यह अध्यात्म ज्ञान शक्ति से उसके पुत्र पराशर, व्यास और शुक आदि को अन्तरित होते हुये आदिशंकराचार्य तक पहुंचा--
नारायणं पद्मभवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्र पराशरं च।
व्यासं शुकं गौड़पदं महान्तं गोविन्दयोगीन्द्रमथास्य शिष्यम्।।
श्री शंकराचार्यमथास्य.......
श्रुति-स्मृति-पुराण प्रतिपादित सनातन धर्म के प्रचार एवं वर्णव्यवस्था के संरक्षण हेतु आदिशंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी-- उत्तर में ‘ज्योतिर्मठ’, दक्षिण में ‘श्रंगेरीमठ’, पूर्व में ‘गोवर्धनमठ’ तथा पश्चिम में ‘शारदामठ’।

इसके साथ ही उन्होंने विधान किया था कि इन मठों में सदैव एक के बाद दूसरे धर्माचार्य शंकराचार्य पद पर सुशोभित होते रहेंगे और देश में धर्म की रक्षा करते रहेंगे। इसके फलस्वरूप, सनातन धर्म निश्चय ही हजारों वर्ष तक निर्विकार बना रहा और वह समाज को सच्चाई-भलाई के मार्ग पर चलाता रहा। किन्तु, इधर एक लम्बे समय से इसका स्वरूप इतना विकृत हो गया है, जिसका कोई हिसाब नहीं है।

इसका मूल कारण है धर्मगुरुओं का भटकाव। अब उन्होंने त्याग-वैराग्य का जीवन जीना छोड़ दिया है। शरीर को तपाकर साधना करने की बजाय, वे भोगलिप्सा में इतना डूब गए हैं, जितना एक सामान्य गृहस्थ भी नहीं डूबा है। उनके ठाठबाट को देखकर उत्तराधिकारी शिष्यों में शंकराचार्य बनने की होड़ लगी है। हर कोई जगद्गुरु बनकर अपने पैर पुजवाना चाहता है। इसके फलस्वरूप, हालत यह हो गई है कि आदिशंकराचार्य के द्वारा स्थापित चार मठों पर आज पैंसठ शंकराचार्य बैठे हैं। कुछ ने अपने आपको जगद्गुरु कहलाने के लिए नए मठों का सृजन कर लिया है।

ये लोग न तो धर्मप्रचार करते हैं और न ही जनता का आध्यात्मिक मार्गदर्शन। ये दान के रूप में आए पैसे पर खाली मौज-मस्ती करते हैं। प्रबुद्ध लोगों में इनके प्रति घोर अश्रद्धा व्याप्त है। किन्तु, भोलेभाले भावनावान् लोग अभी भी जगद्गुरु मानकर उनकी पूजा करते हैं।

उनकी देखादेखी अन्य अनेक तथाकथित धर्मगुरु जगह-जगह अस्तित्व में आ गए हैं। किस्से-कहानियां सुनाकर वे लोगों को मुक्ति का मार्ग दिखा रहे हैं, जब कि स्वयं उनसे कहीं अधिक माया-मोह में फंसे हैं। किन्तु, वे उनकी भावनाओं से खिलवाड़ करके उनसे लाखों रुपये लूट ले जाते हैं।

कहने को तो समाज में कई ब्रह्मर्षि और योगऋषि विद्यमान हैं, जो ऊंचे मूल्य पर बीजमन्त्र बेच रहे हैं और भारी शुल्क लेकर योग के नाम पर खाली आसन-प्राणायाम बताते हैं। ध्यान-समाधि का ज्ञान उन्हें बिल्कुल भी नहीं है। जनसामान्य के दुःख-दर्द से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। उन्हें सत्य के मार्ग पर बढ़ाने की बजाय, वे उनका शोषण कर रहे हैं। जब धर्माचार्य ही सन्मार्ग से भटके हुये हों, तो समाज को दिशा कौन देगा? यही कारण है कि वर्तमान समाज निरन्तर पतन के मार्ग पर जा रहा है। आज चारों ओर अनीति-अन्याय-अधर्म का साम्राज्य है और लोग भय-भूख-भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं।

आजकल, अपात्र एवं नकली धर्मगुरुओं की भरमार है, जिन्होंने असत्य के बल पर अपने आपको समाज में स्थापित कर लिया है। उनके ऊपर रात-दिन पैसा बरस रहा है। टैक्स उन्हें देना नहीं पड़ता, उनका ऐश-ओ-आराम का जीवन है और काम भी उन्हें कुछ करना नहीं पड़ता। यही कारण है कि आज धर्मक्षेत्र एक उद्योग बनकर रह गया है।

इस पक्ष में जनताजनार्दन भी बराबर दोषी है। आज 99 प्रतिशत लोग भौतिकता के पीछे दौड़ रहे हैं। अपनी भौतिक समस्या के समाधान के लिए कोई भी कर्म नहीं करना चाहता। सभी को ऐसे गुरु की तलाश है, जो उनकी समस्याएं चुटकियों में हल कर दे, भले ही पैसे कितने ही ले ले। किन्तु, स्वयं उन्हें कुछ न करना पड़े। जो एकाध प्रतिशत धार्मिक प्रवृत्ति के लोग बचे, उनका भी यही हाल है। उन्हें भी रामकथा-भागवतादि जैसे शॉर्टकट चाहियें। साधना कोई नहीं करना चाहता। यहाँ तक कि वे माता भगवती की आराधना भी नहीं करना चाहते, जिसमें मानव जीवन की समस्त भौतिक और आध्यात्मिक समस्याओं का समाधान निहित है।

सद्गुरु की पहचान

सद्गुरु की पहचान हेतु पूज्य सद्गुरुदेव श्री शक्तिपुत्र जी महाराज ने शिष्यों को चिन्तन प्रदान किया है, ‘‘हमारे लिए यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि हर कोई भगवा वस्त्रधारी, स्वामी, संन्यासी, ब्राह्मण या ब्रह्मचारी, जो वेद शास्त्रों का ज्ञाता हो, प्रखर वक्ता हो और सुन्दर प्रवचन कर लेता हो, सद्गुरु नहीं हो सकता। वेद-शास्त्रों को रटकर तो एक शराबी भी अच्छा प्रवचन कर सकता है, किन्तु वह समाज का सही मार्गदर्शन नहीं कर सकता। यदि कोई धर्मगुरु कामुक चर्चा करने पर चेतन होकर बैठ जाय तथा आध्यात्मिक चर्चा करने पर शिथिल हो जाय, तो समझ लीजिए कि वह कभी भी सद्गुरु नहीं हो सकता। इसके विपरीत, यदि कामुक चर्चा करने से वह पूर्ण चेतन अवस्था में बैठा हुआ भी शिथिल होता चला जाता है और आध्यात्मिक चर्चा करने पर, भले ही वह शिथिल पड़ा हो, यदि पूर्ण चेतन होकर बैठ जाता है, तो उसके सद्गुरु होने में लेशमात्र भी सन्देह नहीं है।’’
ऐसो को सद्गुरु जग माहीं?

आवैं जो भी वाको द्वारे, दुःख मेटत सब ताहीं।। 1।। ऐसो को...
कार्य भौतिक जगत् को कोऊ, उन्हें असम्भव नाहीं।
धुंआधार वर्षा को थामत, सूखे वृष्टि कराहीं।। 2।। ऐसो को...
सामना तपबल का करने को, सामर्थ्य काहु की नाहीं।
स्थापना सत्यधर्म की करने, सत्यपरीक्षण लाहीं।। 3।। ऐसो को...
उतरि शिखर सों आयो शून्य पै, सबै शिखर ले जाहीं।
हेतु जनकल्याण करने के, निज का अस्तित्व लुटाहीं।। 4।। ऐसो को...
जाग्रत् कर निज सूक्ष्मशरीर, कारणशरीर महं जाहीं।
जाको पूर्ण कुण्डलिनी जाग्रत, नित्य इष्ट को दर्शन पाहीं।। 5।। ऐसो को...

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